“खुसरो दरिया प्रेम का, बाकी ऐसी धार, जो
उबरा सो डूब गया । जो डूबा सो पार ।” मध्यकालीन महाकवि के हृदय से उठी यह पुकार आज
भी प्रेमभक्तों के दिल में गू़ंजता रहता है । दूसरी तरफ संत कबीर - “पोथी पढ़ि पढ़ि
जग मुआ.... “मीराबाई के शब्द शब्द में प्रेमाप्लावित कंठ की समर्पित आह गूंजती है।
मध्यकाल के स्वर्ण युग सिद्ध होने का मूल रहस्य प्रेम की हदों का असीम हो उठना है, मानो भक्ति के बहाने करीब हर आत्मशिल्पी कवि के हृदय से प्रेम की तटभ़जक
बाढ़ फूट चली हो। प्रेम की काव्यालोचना छटा क्या कहलाती है, इसकी
स्थायी अनुभूति करने के लिए मीराबाई से बढ़कर भारतीय साहित्य में कोई भी शिखर
नहीं।कह पाना मुश्किल है, कि कृष्ण सबसे ज्यादा राधा और
गोपिकाओं में जीवित रहे या मीराबाई में।कृष्ण ने मीराबाई को पा लिया,या मीराबाई ने कृष्ण को? जैसे तुलसी ओ पाकर राम राम
हो गये,वैसे ही मीराबाई को पाकर श्रीकृष्ण। यह जो ढाई आखर
वाला मंत्राकार शब्द है, प्रत्येक मानव, कवि, जीव, पक्षी, जन्तु के अंतर में जीवन की इकाई की तरह प्रतिष्ठित है। जो प्रेम न कर सका
उसमें भी, जो प्रेम का शत्रु है, उसमें
भी। प्रेम भाव है? तरल एहसास है? अदृश्य
चुंबक है? मनुष्यता की गुरुत्वाकर्षण शक्ति है? या फिर प्राण का मूलप्राण? यदि इसे एक पंक्ति में बांधना हो, तो
“प्रेम हमारी प्रत्येक सांस के पीछे मौजूद
सुगंध है।"
“प्रेम में पड़े रहना"कृति की अर्थशिल्पी रंजीता सिंह फलक, न केवल एक नरम, नाजुक, तरल और सरल हृदय की स्वामिनी हैं, बल्कि कोमलता और
दृढ़ता का मुश्किल संतुलन भी उनकी कलम का स्थायी पता है। प्रेम कभी किसी में पूरा
नहीं हुआ। न पाने वाले प्रेम से अधाता है,न देने वाला। प्रेम
पाने से बहुत बड़ी कला है, प्रेम देना। प्रेम में सफल होने से
बड़ी सफलता है, प्रेम में पराजित होना। खोने, पाने, हारने, जीतने से बहुत
ऊपर है, प्रेम की सिद्धि। निश्चय ही प्रेम अलौकिक मनोभूमि पर
प्रतिष्ठित रहता है,जहाँ सांसारिकता के तानेबाने गैर जरूरी
हो जाते हैं। केवल इसी महत्तम भावतत्व को जीकर मीराबाई काल की सीमाओं के पार अमर
हो चलीं। हृदय का पात्र प्रेम से न कभी भरा है, न भरेगा।
रंजीता सिंह की एक कविता की पंक्तियां हैं - बिसराई गयी बहनें/ और भुलाई गयी
बेटियां/नहीं बिसार पातीं/मायके की देहरी। ( पृष्ठ संख्या-30)
रंजीता फलक स्त्री के कई रूप का मन ही मन अवगाहन करती हैं, उसमें अपना कायांतरण करती हैं, और विविध
भूमिकाओं में स्त्री को आत्मसात करती हैं। एक दृष्टिपूर्ण बेलीकियत निरंतर सक्रिय
दिखती है, उनकी कविताई में।यदि यकीन न आए तो पढ़िए इन
पंक्तियों को-स्त्री देख लेती है/पूरा का पूरा सच/पीठ की आंख से। (पृष्ठ-33)
पीठ की आंख से देखना बिल्कुल नये भावबोध की ओर ले चलता है। यह बोध मन की आंखों
से उपजता है, जिसमें एहसास की विलक्षण शक्ति सक्रिय
रहती है, जिसमें आत्मसजगता केन्द्रीय भूमिका निभाती है। इन
संग्रह का पाठ करके अधिकांश को भ्रम हो जाएगा, कवयित्री
प्रेम में पड़े रहने को लक्ष्य बनाए हुए है, जबकि प्रेम के
लिए खड़े रहना, अड़े रहना, मोर्चा
संभालना और हाथ उठाना भी इन कविताओं में लगातार देखा जा सकता है। एक कविता है – “उदास
होना अपने वक्त की तल्खियों पर।”
इस कविता की अंतिम पंक्तियों पर ध्यान समर्पित कीजिये - उनके लिए उदास होना/
जिन्होंने/हमारी जरूरतों की लड़ाई में/खो दीं अपने जीवन की/सारी खुशियाँ/जिन्होंने
गुजार दिए/बीहड़ों में जीवन के जाने कितने बसंत। ( पृष्ठ संख्या-35)
निस्संदेह रंजीता फलक प्रेम को पूरी शालीनता, अनुरक्ति
और मस्ती के साथ जीने वाली स्त्री हैं, बल्कि प्रेम की सुगंध
पर चौकीदारी करने वाले के खिलाफ सशक्त आवाज उठाने वाली हिम्मती कलमकारा भी हैं। लीक
से बहुत हटकर नये प्रेमात्मक मूल्य को स्थापित करने का टटका साहस भी उनमें
उद्भाषित होता है।
बहुत जरूरी है थोड़ी सी उदासी/थोड़ा सा सब्र और/ढेर सारा साहस। पृष्ठ संख्या - 40)
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संग्रह की लंबी कविता है-मन की स्लेट।इसकी अंतिम पंक्तियों पर नजर लाइए-हमेशा
कोरी रहनी चाहिए/औरतों के मन की स्लेट। (पृष्ठ संख्या-44)
स्त्री होना एक बात है, और स्त्रीत्व को जीना, वो भी भरपूर शिद्द्त, व्यापकता और सजगता के साथ,बिल्कुल दूसरी बात है। रंजीता सिंह स्त्री के अलक्षित बाहृय, आंतरिक कद को अपने हृदय के आयतन में प्रतिष्ठित करती हैं। और यही कारण है,
कि वे बहुत ज्यादा स्त्री हैं, अतिशय
स्त्रीमना और आधी दुनिया की ओर करबद्ध होकर झुकी हुई। लंबे लंबे शीर्षकों वाली
अनेक कविताओं में एक कविता है-"खूब याद करती हूँ तुम्हें....।" इसमें
बीत चुकी स्मृति की आहमय चुभन इतनी तीव्र है,कि हमें अपने
बचपन में खींच ले जाती है। कई पंक्तियां अपनी अभिव्यक्ति जान पड़ती हैं। परछाई से
भी ज्यादा अटूट, किन्तु अदृश्य दुख के धारदार यथार्थ की
अलहदा अनुभूति फूट पड़ी है, इस कविता में।
और हम खुद के दुखों से जूझते हुए/इतने बेबस,इतने
निराश हो चले हैं/ कि नहीं उठा पाते/एक दूसरे के दुखों का बोझ/न ही मुस्कुरा
पाते/न ही दिलासा दे पाते/कि बस अब खत्म ही हो जाएगा ये सब। (पृष्ठ संख्या-49)
‘भाई-दो’ शीर्षक जरा खटकता है, वजह
है-शीर्षक में नयापन न होना। जबकि रंजीता फलक का यह संग्रह भिन्न-भिन्न शीर्षकों
की रौनक से भरपूर है। सहज,अभिधात्मक और भावपूर्ण यह कविता
अपने अस्तित्व के दूसरे पक्ष-भाई की अहक भरी याद है। टीसते अपनत्व की वाणी से परे
याद इसमें देखते बनती है। जैसे कवयित्री भाई को वेदना के सांचे में ढाले बगैर जी
नहीं पा रहीं। दरअसल यहाँ भाई को याद करना,अपनी पहचान की
अनिवार्य शर्त को जीवित करना है। इस संग्रह की प्रमुखतम कविता है -"छोड़ी गयी
औरतें और भुलायी गईं प्रेमिकाएँ।" यह महज एक कविता नहीं, स्त्री के विलुप्त हो रहे महत्व,अनिवार्यता और वजूद
को स्थापित करने का एक जरुरी पाठ भी है। सधी हुई सजगता की सशक्त पंक्तियां हैं,
देखिए:
छोड़े जाने और भुलाए जाने के क्रम में ही/उनकी खुद से होती है मुलाकात/मिलती
हैं खुद से पहली बार सदेह/टटोलती हैं अपना ही अस्तित्व। (पृष्ठ संख्या-58)लंबी कविता के इस वितान में रंजीता जी के कवयित्री कद की आहट
को लगातार सुना जा सकता है। साहसी, खुद्दार और स्वतंत्र सोच
भरी स्त्री के साथ हृदय और बुद्धि की कदमताल मिलाकर चलती हैं। वे करीब हर परिस्थिति
में, हर मोड़ और हर अकेलेपन में स्त्री के साथ एकाकार नजर आती
हैं, और बड़ी अनौपचारिक सहजता के साथ उनकी पराजय,तन्हाई, खदबदाते मौन, स्वप्न
और तड़प को अपना बना लेती हैं। इस अर्थ में उनका सर्जकमन व्यक्तित्वांतरण की क्षमता
से भरपूर है, जो कवयित्री की काया से बार बार बाहर निकल कर
ओझल संसार को अपने धैर्य और श्रम से रौशन करती हुई स्त्री की आत्मा में प्रवेश
करती हैं। आकंठ समर्पण और कृतज्ञता के साथ।
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‘तुम्हारा नाम’ कविता प्रेमपगे क्षणों में सहसा विरही जागरण
का शोकगीत है। अंतर्मुखी होकर भी मर्म पुकारने की आकुलता से लबरेज़। यह अप्रकट
प्रेमी के साथ सघन संवाद भी है। मिलने,बिछुड़ने, खोने, पाने, मिटने, उठ जाने की मनोदशा में उड़ती हुई कवयित्री अपने प्रेमी के प्रति गजब की आसक्ति
से भरी पड़ी हैं। इस कविता में प्रेमी से कहीं ज्यादा उसके भीतर नींवमय प्रेम की
अनहद पुकार है। प्रेमी केवल स्रोत है, माध्यम
है, भूमिका है, और है प्रेम के पुष्प
की जमीन। वरना प्रेमरहित मनुष्य की क्या कीमत? यह प्रेम ही
है, जो प्रेमी से हमें बांधे रखता है,छाया
की तरह, क्योंकि उसके भीतर, इस भौतिक
हाड़मांस के ढांचे में कालजयी, असीम, अलौकिक
सुगंध फूटी है, जिसका नाम है -नेह। बिना वर्जनाओं को तोड़ा
प्रेम की कसौटी पर खरे नहीं उतर सकते,बिना सीमाओं से बगावत
किए,प्रेम का साक्षात्कार नहीं कर सकते।इसके लिए तो अपने
अहंकार सरीखे सिर को काटकर अपने हाथ में रख लेना पड़ता है। समूचा सूफीवाद लहलहा रहा
है, सदियों से इसी कालजयी फसल को समूचे विश्व में लहलहा देने
के कारण। पढ़ा लिखा आदमी भारी असफल रहता है प्रेम में। क्योंकि ज्ञान बुद्धि को
बादशाह बना देता है, और जहाँ बुद्धि का दबदबा बना, वहाँ प्रेम का बीज कैसे फूट सकता है। मध्य काल का करीब प्रत्येक कवि
प्रेम की पाठशाला है, जबकि उनमें से किसी ने पाठशाला का
दर्शन नहीं किया। "सपने जादू नहीं जगाते" शीर्षक कविता प्रेम का समकालीन
आयतन रचती है। हममें समझ भरती है, कि प्रेम की एक निर्मल झलक,एक जागृति, एक आहट,एक उद्दाम
मस्ती भिगा देती है, तन-मन का कोना-कोना। कुछ पंक्तियां
प्रमाण के लिए:
शायद एक भ्रम सा/शायद एक स्वप्न सा/शायद एक चांद सा/उतर आता है/मन के कोरे
आंगन में/और जगमगा उठती हैं/मन की तमाम दिशाएँ। (पृष्ठ संख्या-76)
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‘विश्वास की डिब्बी’ में बंद शक, शीर्षक
कविता पढ़कर रंजीता फलक की मनोरचना का सूत्र पकड़ा जा सकता है। इसमें क्षण, प्रतिक्षण आवाजाही मचाती अंतर्भावनाओं की बेलाग, सीधी
अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष होती है, जिसमें कोई सायास कलाकारी
नहीं, शैलीगत नफासत नहीं, भावनाओं का
बनावटी तोड़मरोड़कर नहीं। बल्कि ताजा,सजग एहसास की सर्वोपरि
रखने की नम्र जिद दिखाई पड़ती है। ‘मन का गीलापन’ पुनः अदृश्य प्रेमी की याद धधक
उठना है। कह सकते हैं कि पूरा संग्रह एक अघोषित चहेते की आहट से निनादित है। कविताई
की मूलभूत कसौटियों की चिंता न करने की हद तक रंजीता फलक की सहजता है, जहाँ कई बार सपाटबयानी और खांटी सरलता की मुहर भी लग जाती है। परन्तु
यहाँ लक्ष्य है, भावों का आवेग, लक्ष्य
है, अनुभूति का यादगारपन, लक्ष्य है, हृदय का प्रकाशन। इसीलिए कई कविताएं कलात्मक जादूपन से रहित होकर भी मर्म
को मथने में सक्षम हैं। ‘होना सिर्फ़ एक रूह’ कविता अपने शीर्षक में ही मुकम्मल
कविता है। यहाँ रंजीता जी अपने बेलीक प्रेम की रौ में बह चली हैं, लौ में दहक चली हैं, और कोने कोने में प्रेम का राग
अलाप चली हैं। यह महज कविता नहीं, अपनी प्यास के उद्दाम होकर
उमड़ने की सीमामुक्त मनोदशा है।
बिखरना चाहती हूँ/ दूर तक तुम्हारे सीने पर/किसी ठाठें मारती /मैदानी नदी
सी/और कभी कभी सूख जाना चाहती हूँ/तुम्हारी सांसों के उबलते जेठ में।(पृष्ठ
संख्या-86)
‘मौन’ कविता को साधने के क्षणों में कवयित्री यथार्थ की ओर कलम बढ़ा चुकी हैं, मन अधिक जमीनी हो चला है, प्रेम अधिक
परिपक्वता ले चुका है। जहाँ कसक, आंसू और विरह मात्र नहीं,
बल्कि एक धैर्यपूर्ण समझ सक्रिय है। संसारबद्ध प्रेम का यथार्थ
अक्सर पछतावा, गहरी असफलता की पीड़ा और खालीपन लाता है।
'तुमने जबसे मेरा बोलना बंद किया है/देखो मेरा मौन कितना चीखने लगा है/गूंजने लगी हैं मेरी असहमतियां/और आहत हो रहा है तुम्हारा दर्प।' (पृष्ठ संख्या-92)
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रंजीता सिंह फलक की कलम में केवल प्रेम ही नहीं, बल्कि
हृदय को परिभाषित करने वाली तमाम कोमल, बेमिसाल भावनाओं को
कविताई में ढालने की प्रबल संभावना है। केवल प्रेम के विविध आयामी रंग को केन्द्र
में रखकर बुना गया यह संग्रह हम जैसे प्रेमपाठकों के भीतर दीया जला देता है, राग उठा देता है, सोयी प्रेमाकांक्षा प्रज्जवलित कर
देता है। प्रेम किसी विचारक से पूरा नहीं हुआ, किसी विमर्शक
से व्याख्यायित नहीं हुआ, किसी कवि से शब्दबद्ध नहीं हुआ, और न ही इन तीनों से आगे होगा। यही प्रेम की असीमता है, यही प्रेम का अलक्षित रहस्य है, यही प्रेम का
अंतर्यामीपन है। भूख,इच्छा और स्वप्न की तरह प्रेम भी मनुष्य
को परिभाषित करने वाला मूल तत्व है, इसी से सृष्टि खड़ी हुई, इसी के दम पर सारे रिश्ते-नाते बहुमूल्य बने, इसी
बीज ने मनुष्यता की खेती को हजारों सालों से संभाले रखा।यही वह इकाई है, जिसे जीवन का आधार तत्व कहा जाना चाहिए। कहिए कि पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण
शक्ति की तरह चराचर अस्तित्व को अपने खींचाव में बांधे हुए है। स्त्री-पुरुष का
प्रेम शाश्वत है,अपरिवर्तनीय है, मीमांसा
से परे है, किन्तु मनुष्य का जड़ सत्ता से, जीव से, पक्षियों से, जानवरों
से अनुरक्ति भी प्रेम के एक अद्भुत, असाधारण फलक का निर्माण
करता है। श्रद्धा और भक्ति केवल मनुष्य तक सीमित है, किन्तु
प्रेम मानवीय सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है। देखा तो यहाँ तक गया है, दो विजातीय जीव एक दूसरे से प्रेम रखते हैं। प्रेम में जहाँ पररक्षा की
व्याकुता तीव्र दिखे वहाँ प्रेम की आग प्रज्जवलित समझिए। कई बार देखा गया है, गाय बकरी के बच्चों को दूध पिला रही है, स्त्री के
स्तन का दूध बंदर का बच्चा ,मां समझ कर पी रहा है। इतना ही
नहीं, यदि छोटा बच्चा गाय का थन मुंह में लगा दिया, तो गाय मारे ममत्व के टस से मस नहीं होती। इसीलिए प्रेम कब,कहाँ, किसमें, कितने आश्चर्य
जनक तरीक़े से जन्म ले लेगा, कहा नहीं जा सकता। मनोशिल्पी
दार्शनिक फ्रायड ने प्रेम के मानवीय आयामों की क्रांतिकारी व्याख्या प्रस्तुत की, जिस पर अनेक विवाद भी उठ खडे़ हुए,किन्तु वक्त के
न्यायाधीशी स्वभाव ने अंततः सिद्ध कर दिया, कि फ्रायड अपने
निष्कर्ष में विवादास्पद होने के बावजूद गलत नहीं था।
उम्मीद ही नहीं, प्रबल यकीन है कि आगामी वक्त में
रंजीता फलक की लेखनी न केवल प्रेम की इन छूटी हुई दिशाओं को,
प्रेम के मानवेत्तर स्वरूप को सृजनमय बनाएंगी, बल्कि हृदय को
अद्वितीय बनाने वाली अन्य भावनाओं जैसे करुणा, सहानुभूति,
त्याग, समर्पण को अपनी अलहदा वेदना के मोहक
तानेबाने में स्थायी बनाएंगी।
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संपर्क :-
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग,
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, (मेघालय) 793022
मो. :- 09774125265
शुक्रिया दिनेश जी
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