Pages

Sunday, January 23, 2022

बुंदेलखंड में अस्मिता के संकटों से जूझते सौंर आदिवासी :- डॉ. राजेन्द्र यादव

डॉ. राजेन्द्र यादव


मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के राजनैतिक धरातल पर विभाजित बृहद बुंदेलखंड की सबसे प्राचीन आदिवासी ‘सौंर’ आज इक्कीसवीं सदी के भारतीय विकास मॉडल में समय से बाहर हो चले हैं । अविभाजित बुंदेलखंड के लगभग अठारह जिला जनपदों के अंदरूनी भू-भाग में ग्रामीण क्षेत्र के नदी घाटी और उनसे सटे जंगलों में निवास करने वाली यह सौंर आदिवासी बुंदेलखंड की प्रागैतिहासिक काल से इस क्षेत्र में निवास करने वाली जनजाति है । जंगली पेड-पौधों और जंगली वस्तुओं का संग्रह करके अपने जीवन-यापन का संघर्ष करने वाली यह आदिवासी प्रजाति अपने जीवन संघर्ष और निडरता के लिए जानी जाती है । वनोपज और शिकार पर निर्भर रहने वाली यह जनजाति आज वीरान होते जंगलों और नदियों के अबैध उत्खनन ने इनके परम्परागत जीवन-यापन के साधनों को लगभग समाप्त कर दिया है । विकास की यह तेज-रफ्तार जिस तरह से अत्याधुनिक मशीनों से नदियों, पहाड़ों, मैदानों के किनारे के इकोसिस्टम को नष्ट किये जा रही है उससे इस प्राचीन जनजाति का अस्तित्त्व ही संकट में आ गया है । बुंदेलखंड में इनकी बस्तियाँ लगातार कम होती जा रही हैं । मध्यप्रदेश के सागर संभाग के सभी छ: जिलों के दूर-दराज ग्रामीण अंचल में रहने वाली इस जनजाति के परम्परागत रहवास पर आधुनिक उत्खननवादी संस्कृति के हमलों से यह बेघर हो गयी है । प्रकुति के दोहन की जो रफ़्तार पिछले बीस वषों में दिखाई दी है, वह प्रकाश की गति से भी तेज है । इससे हो यह रहा है कि जंगल-नदी-पहाड़-घाटियाँ आदि प्राकुतिक पर्यावरण के मुख्य घटक जो पहले धीमी गति से उपयोग करते हुए जिनके अस्तित्त्व को कोई ख़तरा नहीं था, या था भी तो उसकी अवधि बहुत दीर्घ थी । यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि यदि नदी और जंगलों का दोहन उनके सालाना उत्पादन से कम किया जाये तो यह ऐसे जीवंत स्रोत हैं जिनके लगातार दोहन से भी इन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचता । लेकिन हो क्या रहा है आप सोच भी नहीं सकते, जो वहां घटित हो रहा है । जहाँ उत्खनन हो रहा है वहां विदेशी हाई-स्पीड पावरफुल स्वचालित मशीनों से सारे खनन के लिए बनाए गए नियमों को ताक-पर रखकर खुदाई की जा रही है । मजे की एक बात और यहाँ उल्लेखनीय है कि जिनका स्थायी तौर पर घर हमेशा के लिए उजाड़ा जा रहा है, उसी सौंर जनजाति के लोग वहां रात-दिन मजदूरी करते हुए जीवन यापन कर रहे हैं ।

सौंर जनजाति के लोग कल्पना में भी यह नहीं सोच सकते कि वे अपने ही अस्तित्त्व को मिटाने की मजदूरी कर रहे हैं । नदी-पहाड़-घाटियों-जंगलों की बेतहासा खुदाई करने वाले लोग कौंन हैं ? यह एक ऐसा सरल उत्तर है जिसका जबाब पूरा प्रशासन और समूची आबादी जानती है, लेकिन ना कोई इनकी शिकायत कर सकता है और ना शिकायत करने से इनका कुछ बिगड़ता है, बल्कि उलटे शिकायतकर्ता को किसी पुलिसिया जाल में फंसाकर ठिकाने लगा दिया जाता है । यह ताकतवर संगठित अपराधियों का स्थानीय प्रशासन के साथ इतना मजबूत गठजोड़ कायम हो चुका है कि इनका विरोध करने वाले अधिकारियों और पत्रकारों तक को ये लोग मिलकर ठिकाने लगा देते हैं । उनकी ह्त्या की ख़बरें आप आए दिन देख ही रहे हैं और इनका बोलवाला इतना है, कि इनके खिलाफ उस पूरे इलाके में कोई गवाह भी ढूंढे नहीं मिलता । आदिवासी लेखन आदिवासियों की अस्मिता और अस्तित्त्व को कायम रखने के लिए लिखा जा रहा साहित्य है जिसका प्रमुख स्त्रोत उनके जीवन से जुड़ी चीजें हैं । इस सन्दर्भ में प्रो. के. सच्चिदानंदन लिखते हैं कि “आदिवासी साहित्य के प्रमुख स्त्रोत प्रकृति, संस्कृति और इतिहास हैं । वे प्रकृति, नदी, वृक्ष और पशु-पक्षियों से निकटता पसंद करते हैं । यह सब उनकी कविताओं में भी नज़र आता है । उनकी परम्पराएँ, रीति-रिवाज, धार्मिक उत्सव, त्यौहार और देवी-देवता भी उनके लेखन को प्रेरित करते हैं ।”1

               घास-पूस के टपरों में रहने वाले आदिवासी इनका क्या विरोध करेंगे । बुंदेलखंड की यह वास्तविक तस्वीर दिल-दहला देने वाली है । बुंदेलखंड में टेलकम-पावडर के लिए उपयोग होने वाले पत्थर के पहाड़ हुआ करते थे, पर उन ऊँचे-ऊँचे गौरा पत्थर के कई किलोमीटर लम्बे पहाड़ों की जगह खुदाई के टीले नज़र आते हैं, पहाड़ नहीं । किसी को कोई मतलब नहीं है और कोई विदेशी लोग थोड़ी यह सब खनन कर रहे हैं, यह सब स्थानीय शक्तिशाली राजनैतिक हैसियत रखने वाले लोगों के साथ स्थानीय जिला प्रशासन के खुले सहयोग से हो रहा है । यह सब खनन जहां पिछले पचास वर्षों से हो रहा है, उसे हिन्दी में जंगल-वन और बुन्देली में डांग कहते हैं, जिससे कुछ-ना-कुछ चाहिए हम सबको है, पर उसकी लूट से हमें हमारे समाज को कोई मतलब नहीं है । कितने कायर लोग होते जा रहे हैं हम लोग, ऐसे ही सुविधा भोगियों के लिए मुक्तिबोध ने अपनी प्रसिद्ध लम्बी कविता ‘अँधेरे में’ में करारी चोट की थी ।

               बुंदेलखंड के सभी छ: (6) जिलों में बहनेवाली नदियों की हालत कोई देख ले तो उनके अमानवीय खनन से उनके विकृत स्वरूप को कोई सहन नहीं कर सकता । दमोह जिले में नरसिंहगढ़ सीमेंट प्लांट जिस नदी के किनारे लगा है उस नदी का अस्तित्त्व ही समाप्त कर दिया गया है । यहाँ चालीस किलोमीटर क्षेत्र की नदी और खेती की उपजाऊ कृषिभूमि बंजर कर दी गयी है । लेकिन यह सब दोहन जंगली आदिवासी बहुल्य क्षेत्र में हुआ है इसलिए शेष सभी सभ्य क्षेत्रीय आबादी के लिए यह सब मूल्यहीन बेकार की बात है । आदिवासी यहीं मजदूरी करते हुए यहाँ की धूल भरे वातावरण में रहते हुए फेंफडों की बीमारियों से बड़े पैमाने पर शिकार हो रहे हैं । इस पूरे क्षेत्र में हर तीसरे व्यक्ति को टी वी (ट्यूबरकिलोसिस) की जानलेवा बीमारी का सामना करना आम बात है । यही हाल बुंदेलखंड की सबसे प्राचीन नदी ‘दसान’ का है । दसान नदी जो बुंदेलखंड के सागर जिले की सीमावर्ती क्षेत्र से निकलकर ललितपुर, टीकमगढ़ से होकर बहते हुए छतरपुर जिले से आगे बेतवा नदी में मिलती है । दसान नदी के बुंदेलखंड क्षेत्र में पांच जिले आते हैं । इन पाँचों जिलों में दसान नदी में जहां बड़ी मात्रा में खनन किया जा रहा है कमोवेश वह पूरा क्षेत्र सौंर आदिवासियों का परम्परागत क्षेत्र है । बुंदेलखंड में काले और हरे ग्रेनाईट के बड़े-पैमाने पर भण्डार है जिनकी वर्षों से अनवरत खुदाई चल रही है । विदेशों में काले ग्रेनाईट का सबसे अधिक मूल्य मिलता है । यह पूरी कहानी काले पत्थर से डॉलर कमाने की है । जहाँ स्थानीय आदिवासी सौंर सिर्फ एक मजदूर हैं जो वहीं दिन-रात काम करते हुए टीवी रोग से ग्रसित होकर एक बेनाम मौत मर जाना है । आदिवासियों के पास  प्राकृतिक संसाधनों के अपार भंडार हैं जिसे आज सरकार अपने कब्जे में ले रही है | कमलेश्वर लिखते हैं कि “दरअसल जहाँ-जहाँ आदिवासी हैं वहाँ भरपूर प्राकृतिक संसाधन मौजूद हैं । यूरेनियम हो या कोयला, माइका हो या लोहा, तांबा हो या मैगनीज, ये सब आदिवासी प्रधान राज्यों में खासकर हिंदी क्षेत्रों में पाए जाते हैं ।”2 लेकिन आज आदिवासियों के इन जंगलों पहाड़ों को हथिया कर सरकार प्राइवेट कंपनियों के हाथों में सौंप रही है । यह बुंदेलखंड का ही ऐसा सच नहीं बल्कि भारत का एक-एक आदमी जानता है । लेकिन नहीं जानता है, यदि कोई है तो वह है सरकार जिसे कुछ खबर नहीं की कहाँ उसके लोग बुंदेलखंड में काला ग्रेनाईट खोद रहे हैं और कहाँ हीरा । स्थानीय प्रशासन को तो यहाँ तक पता नहीं कि बुंदेलखंड की बेतवा, दसान, उर, केन, चम्बल, जामनी, यमुना, सुनार, बेबस, देहार, बीना आदि नदियों से किस तरह बालू की खुदाई दिन-रात चल रही है । छतरपुर जिले की विजावर, बक्स्वाहा, बडामलहरा क्षेत्र में आज भी प्रागैतिहासिक मानव के बनाए हजारों वर्ष प्राचीन शैलचित्र पाए जाते हैं । इन शैलचित्रों से यह स्वयं सिध्द है कि इस दुर्गम क्षेत्र में निवास करने वाले आदिवासी यहाँ के वास्तविक अधिकारी हैं । डॉ. शिवकुमार तिवारी का मानना है कि “जनजातीय, सांस्कृतिक इतिहास के आदिपुत्र हैं चित्रित शैलाश्रय । जनजातियों के प्राचीनतम उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों में से एक प्रमाण शैलाश्रयों में चित्रित पशु, पक्षियों, आखेट एवं जादू से सम्बंधित वे चित्र हैं जिन्हें मानव सभ्यता के उषाकाल में चित्रित किया था । भारत में पाये जाने वाले चित्रित शैलाश्रयों की सभ्यता को भारतीय इतिहासकारों ने यूरोप में पाई जाने वाली चित्रित गुफाओं की सभ्यता के समकक्ष या पर्याय माना है ।”3  लेकिन सभ्यता की अंधी दौड़ ने और प्राकुतिक संशाधनों की खुली लूट ने इन आदिवासियों को उनके हजारों वर्ष प्राचीन जीवन से धीरे-धीरे अपदस्थ कर दिया है । बुन्देलखंड के वास्तविक निवासी यहाँ के सौंर जनजाति के समूह हैं । बुंदेलखंड के दुर्गम जंगलों में सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी रहते आये सौंर आदिवासी आज आधुनिक भारत के पिछले बीस वर्षों के अदूरदर्शी विकास से अब बेघर हो गए हैं । मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में विभाजित बृहद बुंदेलखंड से आज यहाँ के सौंर जनजाति के बहुल्य वाले गाँवों में इनकी झोपड़ियां या तो उजड़ चुकी हैं या इनके रहवासी दूर किसी महानगर में मजदूरी करने जा बसे हैं । झाँसी के आस-पास और टीकमगढ़, ललितपुर तथा पन्ना जिलों में आज सौंर जनजाति की संख्या वहां के ग्रामीण अंचल में लगातार घटती जा रही है । इनकी गाँवों में जो खेती की जमीनें  थी उन पर गाँव के दबंग लोगों ने एक तरह से कब्जा कर लिया है । बुंदेलखंड से सौंर जनजाति के अपदस्थ होने के पीछे जो कारण सबसे महत्वपूर्ण है उनमें सबसे बड़ा कारण यहाँ मजदूरी नहीं मिलना है, जिसके चलते गाँव के गाँव मजदूरी के लिए खाली होते जा रहे हैं । आज बुंदेलखंड के ग्रामीण क्षेत्र में सौंर जनजाति की आबादी लगातार घट रही है । कहने की जरुरत नहीं कि इस विशेष जनजाति की पलायन की यही दर रही तो एक दिन बुंदेलखंड की यह प्राचीन जनजाति देखते ही देखते विलुप्त हो जायेगी । इसी के साथ हमेशा से बुंदेलखंड क्षेत्र में रह रहे यहाँ के प्राचीन असल आदिवासी सौंर इस देश के विकास की आधुनिकता में हमेशा के लिए समा जायेंगे । यह बुंदेलखंड वही बुंदेलखंड है जिसे शाहजहाँ, ओरंगजेब और अंग्रेजों सभी ने अपने अधीन रखने के पुरजोर प्रयत्न किये, पर यह लम्बे समय तक वीरसिंह प्रथम और महाराजा छत्रसाल के अलावा ज्यादा समय किसी के अधीन नहीं रहा । इस बुंदेलखंड में पन्ना और बक्सवाहा छतरपुर में जमीन के भीतर प्रचुर मात्रा में हीरा के भण्डार मौजूद हैं । पन्ना बुंदेलखंड में हीरे की खदानें होने के बावजूद यहाँ की गरीबी कम नहीं हुई । काल का कोई भी युग हो बुंदेलखंड क्षेत्र में यहाँ का निवासी सदियों से गरीबी भुखमरी के जीवन संघर्ष में मरता खपता आ रहा है । यहाँ के प्राचीन जंगलों की कीमती वनोपज जिसमें बड़ी मात्रा में औषधीय पौधे आदि पाए जाते हैं । यहाँ के जंगलों के विशेषज्ञ यहाँ के सौंर जनजाति के लोग हैं जिनका अब पलायन हो चला है । ऐसे में इस प्राचीन जनजाति की पूरी संस्कृति उसके जीवन के अनेक पहलू भी उसके साथ विलुप्त हो जायेंगे । बुंदेलखंड में सौंर जनजाति की आदिवासी धरोहर और उनकी नगड़िया की दूर से ही आती मनमोहक थाप से भरे नृत्य इस विकास की भेंट चढ़ जायेंगे । सौंर जनजाति की प्राचीनता बुंदेलखंड के सागर, रायसेन, छतरपुर जिलों के शैलचित्र प्रमाणित करते हैं कि यही जनजाति इस प्राचीन क्षेत्र की रहवासी है, जिसका संरक्षण यदि समय रहते नहीं हुआ तो इस महत्त्वपूर्ण जनजाति की संस्कृति हमेशा के लिए विलुप्त हो जायेगी । इस जनजाति की संस्कृति बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का हिस्सा है जिसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए । सौंर जनजाति के सामूहिक नृत्य, उनके विशिष्ट लोक वाद्य और उनकी अपनी ठेठ बुन्देली लोक भाषा के अंदाज और टोन आज संकट में हैं, जिसे समय रहते समाज और प्रशासन द्वारा सहेजा जाना चाहिए । मानव-विज्ञान की दृष्टि से सौंर जनजाति के टोटम-चिन्ह उनके अपने लोक देवता अध्ययन का विषय हैं । इस मानव-शास्त्री अध्ययन से भारत के मानव विकास की अनेक कड़ियाँ जुड़ सकती हैं । इनके रहवास ग्रामीण वस्तियों से दूर जंगलों के पास प्राचीन काल से अभी तक वैसे ही हैं जैसे आदिकाल में हुआ करते थे । यहाँ एक तथ्य उल्लेखनीय है कि सौंर जनजाति इस बृहद बुंदेलखंड में कभी राजसत्ता में नहीं रही । जबकि बुंदेलखंड से सटे गढ़ामंडला क्षेत्र में गौंड जनजाति के राज्य का इतिहास मिलता है । इसका कारण सौंर जनजाति का इस क्षेत्र के दुर्गम और घने जंगलों में रहना है । सौंर जनजाति इतिहास में कभी भी इस बुंदेलखंड के समाज से नजदीकी सम्बन्ध नहीं बना पाई । समाज की मुख्यधारा से दूर रहने के कारण इनके एकाकी जीवन शैली में जंगल ही प्रमुख रहा । सौंर जनजाति ने कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को देर से अपनाया और वह भी गंभीरता से नहीं । इनकी शिक्षा का प्रतिशत इस क्षेत्र की आबादी में सबसे कम है । सौंर जनजाति आज भी समाज की मुख्यधारा से जुड़ नहीं पायी है । इनकी वनोपज के कीमती संग्रह का इन्हें कभी सही और उचित मूल्य नहीं मिला । साहूकारों और तथाकथित सभ्य समाज द्वारा सदियों इनका अनवरत आर्थिक शोषण किया गया । सरकारी योजनाओं का लाभ सिर्फ कागजों पर आंकड़ों के रूप में ही लीपा-पोती होती रही, वास्तविक धरातल पर कुछ बदलाव नहीं हुआ । आज़ादी के बाद की सारी योजनायें भ्रष्टाचार की कोख में समा गयी । बुंदेलखंड के जंगलों से सफ़ेद मूसली, लाख, आंवला, काली और लाल घुंची, चिरोंजी, महुआ, नीम, सागोन, हर्र-बहेरा, सहित अनेकों कीमती जड़ी-बूटियों का संग्रह करने वाले सौंर जनजाति को कोई लाभ नहीं हुआ, विचौलिये करोड़पति बन गए । यह शोषण की दास्ताँ आज़ादी के बाद भी नहीं बदली । अब जब वन पूरी तरह से बुंदेलखंड में समाप्त हो चले हैं और जो बचे हैं उनसे इन जंगलों के मूल निवासियों को वाइल्ड लाइफ के संरक्षण के नाम पर या राष्र्टीय उद्यान आदि के नियमों की आड़ में वनों से बेदखल किया जा रहा है । शिक्षा से सौंर जनजाति की दूरी स्थानीय प्रशासन घटाने में नाकाम रहा है, इसी से इनके जीवन में नगरों की और पलायन करने के अलावा कोई रास्ता शेष नहीं रहा है । इस जनजाति की प्रशासनिक अनदेखी का एक कारण सौंर जनजाति की जनसंख्या का कम होना तथा पूरे बुंदेलखंड में फैले होना भी है । सौंर जनजाति की संख्या कम होने के कारण तथा इनके निवास आज भी सामान्य पहुँच से दूर होने के कारण इन तक शिक्षा का आज भी अभाव है । जनसंख्या कम और बृहद क्षेत्र में इनके फैलाव के कारण इनका पूरे बुंदेलखंड क्षेत्र में आज-तक कोई राजनैतिक अस्तित्त्व नहीं बन पाया । संगठन के अभाव में सौंर जनजाति राष्ट्र की मुख्यधारा से विछुड़ गयी और परिणाम सामने है । आज यह अपने अस्तित्त्व के संकट से जूझ रही है । सौंर जनजाति के रहने के स्थान बुंदेलखंड के जंगलों पर उद्योग और सरकार का दल दिन-व-दिन बढ़ता ही जा रहा है । इससे सौंर जनजाति के रहने का स्थान लगातार सिकुड़ता जा रहा है, इसी कारण इनके जीवन-यापन की समस्या बढती जा रही है । बुंदेलखंड की इस प्राचीन जनजाति के संरक्षण के लिए बुंदेलखंड में वनों को पुन: संरक्षित करना होगा । तभी हम बुंदेलखंड में सौंर जनजाति के अस्तित्त्व को बचा पायेंगे । सौंर जनजाति बुंदेलखंड की प्राचीन लोक-संस्कृति का जरुरी हिस्सा हैं जिसे अनदेखा कर बुंदेलखंड की लोकसंस्कृति के संरक्षण की उम्मीद बेमानी है । आज यह जनजाति अपने प्राकृतिक परिवेश से बेदखल होकर जीवन यापन के लिए मजदूरी करने महानगरों के गंदे अमानवीय स्थानों पर रहने को मजबूर हो गयी है । इस जनजाति को आज नगरों महानगरों की और रोजगार मजदूरी के लिए पलायन करते हुए सहज ही देखा जा सकता है । टीकमगढ़ जिले के जतारा तहसील के बछोंडा क्षेत्र में और मुहारा बैरवार गांधीग्राम आदि में अब सौंर जनजाति के इक्का-दुक्का घर ही रह गए हैं बाकि आधिकांश इस क्षेत्र की सौंर जनजाति नगरों की और मज़बूरी में पलायन कर गयी है । इनके खेत कुंआ उजड़ गए हैं, घास-पूस और कच्चे मिटटी के घरों की इनकी वस्तियाँ इस क्षेत्र के प्रत्येक गाँव के आस-पास उजड़ी हुई अब भी मिल जायेंगी । टीकमगढ़ जिले के लार, मांची, खरगापुर, करमौरा, वर्मा-डांग आदि सौंर बहुल्य गाँवों में अब इनके अवशेष इनकी टूटी, मिटी, गिरी हुई कच्ची मिटटी की वस्तियों के खंडहर शेष रह गए हैं और कुछ नहीं । एक पूरी की पूरी प्राचीन जनजाति अपने निजी क्षेत्र से कैसे परायों की तरह निकाल दी गयी और उनके अपने जीवन के जंगल पर दूसरों ने कब्जा कर लिया । आज अपने अस्तित्त्व के संकट से जूझ रही सौंर जनजाति के सामने अपनी जातिगत पहचान का बड़ा संकट आनेवाला है । आनेवाले कुछ समय बाद इस जनजाति की सम्पूर्ण पहचान ही विलुप्त हो जायगी । लोग मानेगें नहीं की बुंदेलखंड में कभी सौंर जनजाति रहती थी । झाँसी, टीकमगढ़, ललितपुर, छतरपुर, पन्ना, दमोह, हमीरपुर, बांदा, महोबा, चित्रकोट, निवाड़ी, सागर, रायसेन, दतिया आदि जिलों में बुंदेलखंड की मूल-निवासी ‘सौंर’ जनजाति  आज अपने अस्तित्त्व को बचाने का संघर्ष कर रही है । इस जनजाति के हक़ में यहाँ बुंदेलखंड के जंगलों का संरक्षण करके इस जनजाति को बचाया जा सकता है । नदियों घाटियों के जीवन की आदी सौंर जनजाति को उसके क्षेत्र में प्राथमिकता के साथ जीवन की मूल-भूत सुविधाओं को उपलब्ध कराया जाना चाहिए । तभी बुंदेलखंड की मूल-निवासी सौंर तथा अन्य जनजातियों का अस्तित्त्व बचेगा ।

सन्दर्भ ग्रन्थ :

1.        संपा. रमणिका गुप्ता, भारत का आदिवासी स्वर, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृष्ठ – 17

2.        वही, पृष्ठ – 33

3.        डॉ. शिवकुमार तिवारी, मध्यप्रदेश की जनजातीय संस्कृति, मध्य प्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल,  2005, पृष्ठ – 23

अन्य सहायक ग्रन्थ

1.        जिला गजेटियर, जिला – सागर, मध्यप्रदेश

2.        ईसुरी पत्रिका, अंक – 6, सम्पा. - कांतिकुमार जैन

3.        जिला गजेटियर, जिला – टीकमगढ़, मध्यप्रदेश

4.        जिला गजेटियर, जिला – छतरपुर, मध्यप्रदेश

5.        जिला गजेटियर, जिला – पन्ना,  मध्यप्रदेश             

संपर्क :

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग

डॉ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)

ईमेल : yadavdrrajendra@gmail.com

No comments:

Post a Comment