Pages

Thursday, March 10, 2022

असहमतियों के विरुद्ध प्रेम और मानवीय संवेदनाओं की कविताएँ – प्रतिभा चौहान

             

(चित्र : मिठाई लाल जी की फेसबुक वॉल से साभार)
        मनुष्य सजीव और संवेदनशील है, और यह संवेदनशीलता ही कविताओं की रचना की आवश्यकता है। जब संवेदनशील मनुष्य कविताओं को आत्मसात् करता है तो ये कवितायें समस्त तर्क वितर्को से परे संवेदनशील व्यक्ति के अपने स्वयं के मनोभावों से एकाकार करती हुई मन को स्पर्श करती हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि एक संवेदनशील व्यक्ति के हृदय के सबसे करीब यदि कोई रचना होती है तो वह है कविता। कविताएं प्रेम और विश्वास को बनाए रखने तथा जीवन के मूल्यों की पुनर्स्थापना का कार्य करती हैं। फिर जब कविताएँ प्रेम जैसे शाश्वत विषय पर लिखी गयी हों तब तो बात ही कुछ और होती है। वर्तमान समय में कई कवियित्रियां कविताएं लिख रही हैं परंतु उन्हीं में से कुछ चुनिंदा कवयित्रियां ऐसी हैं जो कविता को अनुभव की सघनता और भावनाओं से सराबोर नए रूप करती हैं उन्हीं में से एक हैं रंजीता सिंह ‘फलक’। उनका  कविता संग्रह "प्रेम में पड़े रहना" विविधताओं के साथ भावों की गहराइयों में उतर जाता है। उनके कथ्य में ताजगी है और संवेदना और भावनाओं से ओतप्रोत कविताएं ऐसी प्रतीत होती हैं मानो समस्त विविधताओं को साथ में लिए हुए कोई संगीत गुंजायमान हो। प्रेम विषय पर लिखी गयी रंजीता जी की कविताओं में अत्यंत गहरी मार्मिकता, संवेदनाओं, भावनाओं व अनुभूतियों की बानगी है। स्त्री की समग्र सूक्ष्म गहरी संवेदना हृदय में उठने वाले उतार-चढ़ाव हमारे समाज की जड़ों में रची बसी गहरी परंपराओं का ही परिणाम हैं। रंजीता जी भी जीवन को प्रेम और कविताओं के माध्यम से नए स्वरूप में गढ़ने को आतुर हैं “लिखा जा  रहा है / बहुत कुछ / पर / मैं लिखती रहूँगी सिर्फ प्रेम... एक खूबसूरत दुनिया को / बचाए रखने के लिए / बहुत जरूरी है / हमारा / प्रेम में पड़े रहना” इनकी कविताओं में सौंदर्य बोध प्रेम अनुभव तथा सबसे बड़ी बात उसे कहने की अभिव्यक्ति की सक्षमता दिखाई देती है। ये कविताएं बेहद संतुलित सशक्त और उतनी ही नाजुक और सूक्ष्म संवेदनाओं का वर्णन करती हैं। हृदय में छुपी हुई किसी चीज को उजागर करती हुई सभी पाठकों के सम्मुख लाने का प्रयास करती हैं और यह कहना बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं है कि वे इसमें पूर्ण रूप से सफल हुई हैं।

              यह कहना गलत न होगा कि ये कविताएं स्त्री विमर्श को नया स्वर देते हुए पुरुष सत्ता को धिक्कारतीं नहीं बल्कि उसे चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए अपने जीवन में बदलाव की आकांक्षा रखती हैं “ तुमने/ जब से मेरा बोलना बंद किया है /देखो मेरा मौन/ कितना चीखने लगा है,/ चीखने लगीं हैं /मेरी असहमतियाँ /और आहत हो रहा है /तुम्हारा दर्प” अनुभव की गहराई में पहुंचकर उनका हर शब्द एक नई कहानी लिखता हुआ प्रतीत होता है कुछ कविताएं तो इतनी भावपूर्ण हैं जिन्हें  पढ़ने भर से व्यक्ति भाव विभोर हो सकता है। किसी भी प्रकार के संक्रमण से बची हुई यह कविताएं भाषाई नवीनता के साथ कुछ नया जानना और पाना चाहती हैं ठीक उसी भांति जैसे एक भावपूर्ण शांत व्यक्ति अपने मन से संवाद करता हुआ प्रतीत होता है उसी प्रकार यह कविताएं हृदय से निकलकर मस्तिष्क पर छा जाती हैं और स्वयं से कई सवाल करती हैं  रिश्तो पर मंडराते संकट और उनकी जद्दोजहद में छटपटाते भाव की संघर्षगाथा हैं ये कविताएं मुख्यतः उन स्त्रियां की जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं “मैंने /तुम्हारी मनुष्यता से प्रेम किया /और तुम मुझे /देव से लगने लगे /मेरे प्रेम ने की /तुम्हारी आराधना /और तुम ख़ुद को देवता मानकर /आज़माने लगे मुझ ही पर /सर्जना और विनाश के नियम” कवियित्री के अनुसार पित्रसत्तात्मक समाज में पुरुष स्वयं को मालिक के रूप में स्थापित व सत्यापित करता है और उसे स्त्री का आगे बढ़ना उसे चुनौती देना कभी नहीं सुहाता। वे अपनी एक कविता में कहतीं हैं कि,” वे नहीं भूल पाते /अपना आका होना/ हालाँकि वे बेहद शालीन /बुद्धिजीवी लोग हैं /स्त्री अस्मिता के घोर पक्षधर लोग …पर तभी हम में से कोई स्त्री /नहीं ढल पाती /उनके साँचे में…अचानक बदल  देती है /अपनी उड़ान की दिशा /ये वही लोग हैं/ जो सबसे ज़्यादा तिलमिलाते हैं / बौखलाते हैं /और त्योरियाँ चढ़ाते हैं …ये वही लोग हैं जो / कभी नहीं भूलते / अपना आका होना”

              भाषाई अभिव्यक्ति प्राचीन काल से ही उत्तरोत्तर होती हुई वर्तमान समय को अपनी पहचान के रूप में रंग रही है। हिंदी साहित्य के तमाम कवि अपनी लेखनी से समाज में व्याप्त विषयों और परिवेश से लिखने की प्रेरणा और साहस ले रहे हैं। यह आवश्यक नहीं कि कविता केवल सामाजिक बुराइयों विसंगतियों और दुख पर ही लिखी जाए वह प्रेम, त्याग, स्नेह, विश्वास और समर्पण जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर भी लिखी जा सकती है आज के समय में जब मनुष्य का जीवन अत्यंत जटिल और विरोधाभासी होता जा रहा है ऐसी परिस्थिति में मानवीय गुणों से संपन्न प्रेम त्याग और समर्पण के भावों से लबरेज कविताएं व्यक्ति को उचित मार्ग दिखलाती हैं,” किसी भी विमर्श से /ज़्यादा ज़रूरी है /प्रेम में होना / क्योंकि प्रेम ही /बचाए रखता है /इंसान को निराशा और पतन के अंधेरे /और विनाश के क्षणों में”  एक तरह से देखा जाए तो ऐसी रचनाओं को हम प्रकृति के बहुत करीब पाते हैं। वे रचनायें जिनमें जीवन का विरोधाभास तो भरा हुआ है परंतु वह प्रकृति से दूर नहीं है। आज का मनुष्य आधुनिकतावाद को भी पूरी तरह जीना चाहता है परंतु साथ ही साथ  मानसिक उलझन, तनाव, पीड़ा, द्वंद, निराशा और विभिन्न प्रकार की समस्याओं से दूर रहना चाहता है। यह कैसी विडंबना है कि मनुष्य उपभोक्तावादी और आधुनिकतावादी होने के साथ-साथ शांतिप्रिय और प्रकृति प्रेमी भी होना चाहता है परंतु यह दोनों आपस में विरोधी हैं, और एक सम्यक दूरी रखते हैं। इन दोनों के मध्य एक पुल के रूप में कार्य करता है साहित्य। ऐसा साहित्य सृजन जो यथार्थ को क्रमबद्ध करता हुआ रचना को इतना संप्रेषणीय बना दे कि पाठक के हृदय तक उसकी आवाज पहुंच जाए,” मन का बच्चा/ बने रहना ज़रूरी है/ क्योंकि इश्क़ है / पानी का चाँद” । एक कवि की सबसे बड़ी सफलता यही है कि उसे विषय को चुनने की क्षमता होने साथ साथ,और उसी के अनुसार भाषा के माध्यम से बड़ी से बड़ी बात सरल शब्दों में कह सकने की कुशलता भी हो। समकालीन कविताओं में कुछ कवि इतनी अच्छी कविताएं लिख रहे हैं जिनको पढ़ने के बाद यह बात एकदम झूठी लगती है कि कविता के पाठक कम हो रहे हैं।

              हम मनुष्य हैं और हमारे साथ सभी अनुभूतियां जुड़ी हुई हैं हम इन अनुभूतियों और संवेदनाओं को खुद से अलग नहीं कर सकते क्योंकि यही हमारी मनुष्यता की पहचान है। यदि मनुष्य के पास से प्रेम,त्याग,समर्पण,आशा और स्नेह जैसे भाव हटा दिए जाएं तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रहेगा। मनुष्यता का भाव ही एक लेखनी की सर्वोपरि ताकत होती है, और उसकी ऊर्जा भी । कविता एक कवि के हृदय से निकली हुई दृढ़, शुद्ध और लचीली व कम शब्दों में बयान की गई बड़ी बात होती है जो किसी के भी मष्तिष्क व हृदय को भी जीतने का माद्दा रखती है। एक तरह से कहा जाए तो एक कवि सामाजिक सरोकारों को बड़ी आसानी से अपनी सृजनात्मकता, रचनात्मकता और भाषा के माध्यम से आम पाठकों के मन पर विचारों को अंकित करता है। ये कविताएं बिंबो का सजीव चित्रांकन होती हैं और जीवन से भरी हुई मजबूत परंतु सहजता से अपनी बात कहती हैं।

              कवयित्री रंजीता सिंह की कविताओं में पितृसत्ता के विरुद्ध आक्रोश दिखाई पड़ता है। यह  व्यवस्था के खिलाफ सीधी लड़ाई है,जिस प्रकार समाज में स्त्रियों के प्रति अपराध और हिंसा बढ़ती जा रही है, स्त्रियों के प्रति जो व्यवहार किया जा रहा है उसकी ओर कवियित्री ध्यान आकृष्ट करवाना चाहती हैं, साथ ही साथ यह भी संदेश देंना चाहती हैं कि समाज में स्त्रियों को ही स्त्रियों के प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता है।क्योंकि स्त्रियाँ समस्त समस्याओं के बाद भी स्वयं को हर स्तर पर मज़बूत बनाना चाहती हैं, आशा नहीं छोड़तीं ,” वे जन्मती हैं / सपने / उम्मीद ख़त्म होने की / आख़री मियाद तक / ठीक वैसे / जैसे जनती है कोई स्त्री / अपना पहला बच्चा / रजोवृति के अंतिम सोपान तक “ आवश्यकता इस बात की है कि वे स्वयं को पहचानें और मजबूती से खुद को सबके सामने साबित करें । कवियित्री स्त्री को हीन और पुरुष को श्रेष्ठ समझने वाली समाज में फैली मानसिकता को उजागर करती है और अपने काव्य संसार में स्त्री के अंतःकरण को दुगनी मजबूती से प्रतिष्ठित करती है। अस्मिता विमर्श के दौर में समाज में स्त्रियों को आज भी दोयम दर्जे का स्थान प्राप्त है और वे स्त्रियां जो इस रेखा से बाहर निकलना चाहती हैं उन्हें समाज की पितृसत्तात्मक सोच बाहर निकलने नहीं देना चाहती है, बल्कि उन्हें किसी न किसी आधार पर कमतर बताने और साबित करने की कोशिश जारी रहती है। कवियित्री का अपनी कविताओं के माध्यम से कहना है कि हमारी परंपराएं सोच और रूढ़ियां स्त्रियों के विकास और स्वतंत्रता को बर्दाश्त नहीं कर पातीं और भी किसी दूसरे रूप में नकारात्मक तरीके से उन्हें स्थापित करने का प्रयास करती हैं । परंतु आधुनिक स्त्री इन सब बातों से परे स्वयं को मजबूती से साबित और स्थापित करने को महत्वपूर्ण मानती है और स्वयं के अस्तित्व की सत्ता को ही सर्वोपरि समझते हुए समस्त सामाजिक व्यवस्थाओं परंपराओं रूढ़ियों को धता दिखाती हुई आगे बढ़ती है, “ नियति से लड़ती हुई ये औरतें/ जो किसी की अपनी नहीं होतीं / जितनी निर्ममता से / ठुकरायी जाती हैं / उतनी ही दृढ़ता से / पकड़ लेती हैं अपनी ही उँगलियाँ / और चल देती हैं / एक चपल चाल…और थूक देती हैं / सारी आपबीती /किसी किरकिरी की तरह/ वे अब बार बार नहीं ख़राब करतीं / जीवन का स्वाद” कविता सामाजिकता का ही दर्पण होती है । कविता उन्हीं विषयों पर लिखी जाती है जो विषय कहीं न कहीं हमारे समाज में गहरी जड़ों के साथ मौजूद होते हैं। समाज को कैसा होना चाहिए इस प्रकार की सोच को भी कविता प्रतिष्ठित करती है,यदि कविताओं को ध्यान से पढ़ा जाए और उनमें निहित मर्म को समझा जाए निःसंदेह यह मष्तिस्क पर प्रभाव डालता है। ऐसी परिस्थिति में यदि ऐसा निरंतर होता है तो अवश्य समाज में बदलाव होगा और यह ऐसी रचनाएं समाज में बदलाव लाने के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगी।

----------------------------------------------------------------------------------------------------

संपर्क :- cjpratibha.singh@gmail.com


No comments:

Post a Comment