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Monday, February 1, 2021

हवाओं में भी गर्मी आने लगी है (न समझे जाने का दर्द - डॉ. नामदेव ) समीक्षक - आर डी आनंद

आर डी आनंद (समीक्षक)



डॉ. नामदेव के कविता संग्रह "न समझे जाने का दर्द" में 70 कविताएँ 107 पृष्ठों में फैली हैं। यह संग्रह 2020 के प्रारंभ में ही रश्मि प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित किया गया है। वैसे तो डॉ. नामदेव जी करोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। इससे पूर्व इनकी 7 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "दलित चेतना और स्त्री विमर्श", "स्त्री स्वर: अतीत और वर्तमान" तथा "आलोचना की तीसरी परम्परा और जयप्रकाश कर्दम" दलित साहित्य की बेहतरीन पुस्तकें हैं। इनकी यह कविता संग्रह निहायत खूबसूरत है। जब हम इनकी कविताओं को पढ़ना शुरू करते हैं तो ये एक नए कलेवर, नई भाषा, नए शिल्प और नए स्ट्रक्चर का आभास कराती हैं। "न समझे जाने का दर्द" संग्रह का भी नाम है और पृष्ठ संख्या 106 पर इसी नाम की एक कविता भी है। यह कविता अंतिम कविता से पूर्व की कविता है। इस कविता में सभी कविताओं के साथ-साथ पूरी सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था के संचालकों के मनोदशा का विशद वर्णन है। हालाँकि, कविता बिल्कुल छोटी है लेकिन कविता का कथ्य निश्चित बहुत बड़ा है। यदि संस्थाओं के संचालक अवाम के मनोभाव और उनकी भौतिक परिस्थितियों को नजरअंदाज न करें तो सामाजिक तानाबाना छिन्न-भिन्न कभी न हो। जनमत यह है कि जनता को समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय, शिक्षा और उचित रोजगार सहित उसकी नैतिक और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ती की जिम्मेदारी सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा समुचित पूरी की जानी चाहिए, बल्कि किसी भी तरह का उत्पादन जनता की नैतिक और भौतिक आवश्यकता होने चाहिए तथा उत्पादन के साधन का मालिकाना व्यक्तिगत न होकर सामूहिक होना चाहिए अथवा राष्टीकृत हो लेकिन दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं है। इस कारण ही जनता भ्रमित और कुंठित है। इस कारण ही जनता दुखी व पीड़ित है। इसी कारण जनता असहिष्णु बनती है और देश अस्थिर स्थिति में त्राहिमाम करता है। इस कविता में शोषकों और शोषितों, दलितों और ब्राह्मणवादियों तथा अच्छे और बुरे लोगों की पूरी अवस्थिति है। 

एक सच्चा व्यक्ति जो हरहाल में अपनों को हकीकत से रू-ब-रू कराना चाहता है लेकिन लोग उस पर विश्वास ही नहीं करते हैं बल्कि इसके विपरीत उस पर ही चालाक होने की तोहमत लगा देते हैं। इस स्थिति का एक सच्चे व्यक्ति पर बहुत बुरा असर पड़ता है। सुकरात की बात कितने लोगों ने मानी और कालांतर में सुकरात के बारे में जनसामान्य की राय क्या बनी-किसी से छिपा नहीं है किन्तु यह कहावत चरितार्थ है कि, "अब पछिताए होत क्या जब चिड़िया चुन गई खेत। इस कविता से अनेक ईमानदार और क्रियाशील क्रान्तिकारी साथियों के विचारों को समझा जा सकता है कि वे दिनोंरात किस तरह आम्बेडकरवाद को समझाने में लगे रहते हैं लेकिन वे ही उन बातों को नहीं समझते हैं और न समझना चाहते हैं जिनको समझना नितांत आवश्यक है। जो ब्राह्मणवाद से पीड़ित हैं वे ही हमारे बातों-विचारों, कविता-कहानियों के अर्थ को नहीं समझते हैं। यह सामाजिक परिस्थिति है। यह टी.डब्ल्यू.एडोर्नो का संस्कृति उद्योग है। समाज में अनेक तरह के द्वंद्व उसी तरह निरंतर सक्रीय हैं जिस तरह अणुओं के आंतरिक द्वंद्व सार्वभौम को संचालित करते हैं। इस कविता से संबंधित किन्तु इतर हमें एक पाठ पढ़ने की जरूरत है जो मार्क्स ने कहा है, "संसार को दार्शनिकों ने अपनी-अपनी तरह से व्याख्या की है किन्तु सवाल है इसे बदला कैसे जाये ?" जनता और बुद्धिजीवी में अंतर होता है। जनता के मध्य संस्कृति का जो उद्योग चल रहा है वह हमारी गिरफ्त में नहीं है, वह हमारे नियंत्रण में नही है, हम उसकी प्रक्रिया के तह को नहीं समझते हैं इसलिए हम उसके अभियोग से भी नहीं बच पाते हैं। अभियोग से बच पाएँ, न बच पाएँ लेकिन क्रान्ति की प्रक्रिया ब्राह्मणवादी-पूँजीवादी संस्कृति उद्योग की प्रक्रिया को नष्ट जरूर कर सकता है इसलिए ''न समझे जाने का दर्द'' का वास्तविक अभिप्राय तभी निकलेगा जब हम मार्क्स के शब्द "इसे कैसे बदला जाय" पर ही प्रयोग करते रहें। यह प्रयोग-एक नई संस्कृति के नए उद्योग को जन्म देने में सफल हो सकती है। इस कविता का दर्द निश्चित हर बुद्धिजीवी-क्रान्तिकारी महसूस करता है। यदि मैं यह कहूँ कि इस संग्रह की शेष कविताएँ इस कविता की व्याख्या मात्र हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। वह कविता इस तरह है -
"न समझे जाने का दर्द
होता है सबसे बुरा
जहाँ चौंधिया जाता है एक इंसान
भ्रमित हो जाता है दूसरा
कुंठित हो जाता है तीसरा
चलता रहता है यह सिलसिला
अनवरत! अविराम!
न समझे जाने का दर्द
देता है दंश न मिटने वाला
पीता जाता है एक विष को
हँसते-हँसते
दूसरा रोते-गाते
रहता है तीसरा जूझता
कई तो अकाल काल का जाते हैं बन ग्रास
सच में होता है बहुत बुरा
न समझे जाने का दर्द।"
(न समझे जाने का दर्द, पेज-06)
न समझे जाने का दर्द तब और अधिक होता है जब कोई अपना ही हमारे सत्य मार्ग में पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर रोड़ा डालता है। उन्हें यह नहीं पता कि सबसे अधिक वे ही उस त्रासद स्थिति के शिकार होते हैं। यह समाज की बहुत ही जड़ स्थिति है। चाहे डॉ. नामदेव हो, चाहे आप, चाहे मैं, हम सभी अक्सर आपस में यह कहते मिल जाते हैं कि अमुक जाति केकड़ा प्रजाति का है जो आगे बढ़ने वाले अपने ही बिरादरी की टांग खींचता है। गाँव से शहर तक वे लोग जिनके उत्थान-विकास के लिए हम चिंतित होते हैं, हम परेशान होते हैं, हम उद्यम करते हैं, अक्सर वे ही हमारे रास्ते में अवरोध बन कर खड़े हो जाते हैं, रास्ता रोकते हैं, चिढ़ते-चिढ़ाते हैं। हम कह उठते हैं आखिर किसके लिए मरें, किसके लिए करें जब पूरी कौम के कुँए में ही भाँग पड़ी है लेकिन, इस कविता की खूबसूरती यह है कि कवि विचलित नहीं होता है। वह अपना कर्तव्य नहीं छोड़ता है। वह अपना रास्ता नहीं भूलता है। वह बलिदान तक का संकल्प लेकर चलता है। उसकी एक बानगी "त्रासद" कविता में देखते ही बनती है :
मगर मैं सहज-सपाट
सरपट रहा दौड़ता
अपनी मंजिल की ओर
हँसी और तरस
नहीं आती उन पर
जो करते हैं संदेह
सत्य मार्ग पर
बल्कि होती है चिन्ता
उनके पूर्वाग्रहों पर
जो उनके लिए भी
हैं संकट के बादल
क्योंकि खुद पैदा किए गए संकट
होते हैं भयानक-त्रासद।
(त्रासद, पेज 37)
समाज में वैमनस्य की एक त्रासद स्थिति बनती जा रही है। व्यक्ति अलगाववाद की स्थिति में पहुँच गया है। एक गाँव में कई ग्रुप सक्रीय हैं। आने-जाने वाला व्यंग बांड चलाता ही रहता है। सभी स्वयं को काबिल समझने में उस्ताद हैं। न स्वयं का कोई लक्ष्य है न दूसरे के लक्ष्य को पूरा करने देंगे। सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य में लगने वाले कार्यकर्ता, नेता, चिंतक, मिशनरी, आंदोलनकर्ता, साहित्यकार, कवि व लेखकों को वैचारिक क्रान्ति द्वारा समाज में व्याप्त वैमनस्य और छोटी-छोटी बातों पर लड़ने के बाद गलाकाट प्रतियोगिता की रंजिश बन्द करवाने का प्रयास करना पड़ेगा। कई बार देखने को यह मिलता है कि दलित समाज का प्रत्येक सदस्य ग्राम-पंचायत का एक शातिर खिलाड़ी है जबकि अधिकतर वह अशिक्षित है। ग्राम-पंचायत का वह अशिक्षित सदस्य किन्हीं मामलों में शिक्षित सदस्यों से इतना चिढ़ा होता है कि वह उन शिक्षितों पर बिल्कुल विश्वास नहीं करता है जिसका नुकसान सक्रीय चिंतक, साहित्यकार और परिवर्तनकामी कार्यकर्ता को झेलना पड़ता है। यह बिल्कुल प्रैक्टिकल चिंतन है कि दलित समाज का एक तपका जो पढ़-लिख कर नौकरियों में आ गया है, वह अपने को सर्वांगीड़ सम मान लिया है। वह यह भी मानता है कि वह बहुत ज्ञानी है। उसे लगता है कि अन्य लोगों को उसका ताबेदार रहना चाहिए। एक अजीब सी ऐंठ इस नव संभ्रात दलित वर्ग में पैदा हुआ है जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप ग्राम सभा का अन्य दलित भी ऐंठा घूमता है। इसका हल जितना जल्दी निकाला जा सके उतना ही बेहतर होगा क्योंकि समाज की यह स्थिति दलितों को सवर्णों का गुलाम बनाए रखने में स्वतः मदद करती हैं। "तस्वीर" कविता में उम्मीद है कवि ने ऐसे ही पंचतत्व शरीरों का जिक्र किया है:
सुंदर, अद्भुत पर विकृत तस्वीर
मनोहर उपवन-उद्यान है जिसमें
बलखाती सरिताएँ जिसमें
पंच-तत्वों से निर्मित
जीवधारी और वस्तुएँ हैं जिसमें;
रंग-बिरंगे पोशाकों में सुशोभित लोग
भिन्न-भिन्न समूहों में खण्डित
चेहरे पर लूट मुस्कान
मुँह में लिए मीठी जुबान
उगल रहे थे जहर
एक-दूसरे के खिलाफ;
खण्डित व्यक्तित्व में
अधूरे अस्तित्व में
सुविधाहीन द्वीप में
तिरस्कार के दंश में।
(तस्वीर, पेज -18)
डॉ. नामदेव की पहली कविता है "छोड़ो नकली बातों को"। पूर्व कविता की व्याख्या के रूप में कवि अपनी इस कविता "छोड़ो नकली बातों को" में ही नकली प्रगतिशीलों को संबोधित करते हुए हँसी, वाणी, बर्ताव, प्रगतिशीलता, संस्कार, मुस्कान, मीठी बातें, जनवाद के छद्म को बेनकाब करता है। यही नहीं, कवि उनके मुखौटे, सामंती अवशेष, प्रपंच, जुगाड़, डंसना, विष-वमन, नकली गीत, बरगलाना, नकली बात इत्यादि को त्यागकर परिवर्तन का आह्वान करता है। भारत में एक लम्बे अरसे से मार्क्सवादी चिंतन के लोग संगठन में कार्य कर रहे हैं। मार्क्सवादी होना प्रगतिशीलता की पहचान मान लिया गया है। क्या सचमुच एक मार्क्सवादी प्रगतिशील होता है? क्या सचमुच एक मार्क्सवादी प्रगतिशील है? सवाल यहीं पर यह भी उठता है कि हम प्रगतिशील किसे कहते हैं? एक प्रगतिशील व्यक्ति की क्या पहचान है? सामान्य अर्थ में,  प्रगतिशीलता का अर्थ अनीश्वरवादी, जातिप्रथा विरोधी, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र में विश्वास न करना, भूतप्रेत में यकीन न करना, ऊँचनीच में विश्वास न करना, छुआछूत न करना, गैर-बराबरी का विरोधी होना, समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय में विश्वास रखना, वर्णवादी उत्पत्ति में विश्वास न करना, वर्ण का विरोधी होना, ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद का विरोधी होना है। इसी के साथ यह भी समझना जरूरी है कि पूँजीवादी उत्पादन मुनाफे के लिए किया जाता है लेकिन प्रगतिशील व्यक्ति उत्पादन को जनसामान्य के नैतिक और भौतिक जरूरतों को पूरा किए जाने के लिए किया जाना मानता है। उत्पादन के साधनों का स्वामित्व या तो राष्ट्र का हो या फिर सामूहिक हो, व्यक्तिगत हाथों में बिल्कुल न हो-ऐसा भी एक सच्चा प्रगतिशील मानता है। साथ ही, जनवादियों पर भी सवाल है कि जनवादी जनवाद के नकली गीत क्यों गाते हैं। प्रगतिशीलता और जनवाद पर निरन्तर एक बहस चलती चली आ रही है। अब दलित साहित्य में दलित भी इस बात को लेकर मुखर हुआ है। सवाल वाजिव है लेकिन दलित साथियों को प्रगतिशीलता और जनवाद पर एक नए सिरे से बहस करनी होगी। प्रगतिशील और जनवादी साथियों पर इल्जाम लगाना एक बात है और सचमुच की प्रगतिशीलता और जनवाद को क्रियान्वित करना बिल्कुल अलग किस्म की बात है। मैं तो इसे इस रूप में समझता हूँ कि हर दलित को प्रगतिशील व जनवादी होना चाहिए तथा मुखौटा ओढ़े छद्म प्रगतिशीलों और जनवादियों को मैदान में नंगा कर खदेड़ देना चाहिए। दलित साहित्यकारों को जनवाद का असली गीत गाना चाहिए। सचमुच, कोई भी क्रान्तिकारी होगा वह ऐसा ही करेगा। कविता में दो शब्द हैं  "मासूम", और "बरगलाना"। सवाल है, मासूम कौन है? क्या सामान्य दलित? अथवा क्या दलित बुद्धिजीवी? कविता में डॉ. नामदेव ने लिखा है, "दम है तो सत्य बोलो"। एक झूठे और छद्म आदमी को सत्य बोलने के लिए ललकारना स्वयं को धोखे में रखना है बल्कि उससे अपील करना है, गिड़गिड़ाना है। दुनिया में लोग झूठ न बोलें, अवैज्ञानिक बातें न करें, छद्म न तैयार करें, किसी को परेशान न करें, तो फिर लड़ाई की क्या जरूरत? पूँजीपति शोषण छोड़ दे तब मैदान में आए तो आखिर किसलिए आएगा और क्रान्तिकारी उसे कौन सा सबक और क्यों देगा? सामान्य जन चाहे दलित तो अथवा कोई सवर्ण, इस देश क्या पूरी दुनिया में छला जा रहा है, पूरी दुनिया में उसका शोषण हो रहा है। रही बात किसी बुद्धिजीवी दलित की, तो प्रभु वर्ग से यह कहना कि "दम है तो सत्य बोलो" अपनी बुद्धिजीविता और शाहस को ही कम आँकना है। फिर एक दलित बुद्धिजीवी को मासूम कहना भी अर्थपूर्ण नहीं लगता है। वास्तव में, यहाँ डॉ. नामदेव स्वयं खिलाड़ी की भूमिका में न रहकर रेफरी की भूमिका निभाते हुए दिखाई पड़ते हैं। एक सामान्य सा मत है कि जब भौतिक कंट्राडिक्शन नहीं होगा तो नैतिक कंट्राडिक्शन आखिर क्यों रहेगा। जब कोई सत्य बोलेगा तो मासूमों को क्यों बरागलएगा। ऐसी स्थिति में किसी से हमारी दुश्मनी क्यों होगी। उक्त कविता का अंश दृष्टव्य है:
प्रगतिशीलता के झूठे मुखौटे क्यों लगाते हो,
जनवाद के नकली गीत क्यों गाते हो,
मासूमों को क्यों बरगलाते हो,
दम है तो सत्य बोलो,
छोड़ो नकली बातों को।
(छोड़ो नकली बातों को, पेज 9-10)
कवि यह तो सही कहता है कि ऐसे लोग समूह के एक कण मात्र हैं लेकिन कवि की यह बात कि "होता नहीं कण का कोई वजूद" भौतिक और सामाजिक दोनों रूपों में विज्ञान सम्मत प्रतीत नहीं होता है। कहावत है, एक सड़ी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। विज्ञान का अध्ययन करते समय अणुओं और उसकी प्रक्रिया की विशेषताओं को जाना जा सकता है कि एक अणु का संलयित रूप में कितनी ग्रेविटी होती है और उसके फ़्यूजन की स्थिति में कितनी ऊर्जा प्रवाहित होती है और क्या से क्या कर सकती है। एक कण की स्थिति एक अणु से अधिक क्षमतावान होता है क्योंकि एक कण अणुओं का एक संगठित पिंड है। दरअसल, डॉ. नामदेव ने बयार के सापेक्ष कण के अस्तित्व को कमजोर कहना चाहा है लेकिन भावावेश में वे कह गए कि "होता नहीं कण का कोई अस्तित्व", जबकि उन्हें यह ज्ञात है कि जो बयार बह रही है वह अणुओं का समूह है। एक-एक अणु मिलकर कण बनते हैं। एक-एक कण मिलकर बयार बनती है। अणुओं के संलयित रूप की शक्ति ही है जो विपरीत कण को अपने प्रवेग में बहा ले जाती है और वह अपेक्षकृत शक्तिहीन होकर उसके दबाव में उसी दिशा में प्रवाहमान रहता का जिस दिशा में बयार गतिमान होती है। "कोई अस्तित्व" न स्वीकारना आलोच्य है। वर्तमान सत्ता की हालत और हैसियत देखकर भी क्या यह कहना उचित है? देखिए वह पंक्ति:
जाओ, संभालो, वाचालपन छोड़ो,
बह रही है परिवर्तन की बयार,
मात्र तुम हो एक कण,
और,
होता नहीं कण का कोई वजूद।
(छोड़ो नकली बातों को, पेज 10)
डॉ. नामदेव की इसी कड़ी की एक और कविता "इंक़लाब जिंदाबाद" है जिसमें भी वामपंथ के समझ की बात उठाई गई है। अक्सर दलित वामपंथ की बात करते समय "जाति और वर्ग" के सवाल को उठाता ही है, और सिर्फ सवाल ही नहीं उठता है बल्कि उसको हल भी करता है। हल करते समय वह डॉ. आम्बेडकर के उसी चिंतन को हूबहू रख देता है कि "जाति के भूत को मारे बिना वर्ग नहीं बनेगा"। इस कविता में हमारे प्रबुद्ध साथी डॉ. नामदेव ने भी बताया है कि "भारतीय वामपंथ को,  वर्ग ही नहीं जातिवाद कड़वा सच है भारत का, समझ में आया है।" वैसे भारत के वामपंथियों को जातिवाद पहले भी समझ में आया था लेकिन वे इसे रणनीति और रणकौशल के द्वारा वर्ग-संघर्ष के दौरान ही हल कर लेने की बात किया करते थे। इधर दलित बुद्धिजीवियों ने डॉ. आंबेडकर के विचारों के मंथन के दौरान कम्युनिस्टों, मार्क्सवादियों और वामपंथियों पर जाति के सवाल पर दबाव डालना शुरू किया है। मार्क्सवादियों पर जाति के प्रश्न को गंभीर सवाल के रूप में अपने पार्टी दस्तावेज में न शामिल किए जाने का आरोप लगाते रहे हैं। यह भी देखा जाता रहा है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में कार्यरत सवर्ण घराने के साथी अपने को न डीकास्ट कर पाए हैं और न सांस्कृतिक परिवर्तन कर पाए हैं बल्कि मैदान से घरों में लौटने पर वे ठाकुर और पंडित ही बने रहे हैं। यही नहीं, अपने ही रैंक एण्ड फ़ाइल के जिगरी कॉमरेड्स के साथ अपने घरों में जातीय सोपान के चरित्र के अनुसार ही आचरण करते रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों में कार्यकर्ता स्त्रियाँ आज भी धोबी, पासी, चमार, खटिक, मुस्लिम, भंगी इत्यादि घरों की रहती हैं। ये स्त्रियाँ भले ही क्रान्तिकारी स्प्रिट की हों लेकिन सवर्ण घरों की स्त्रियों के सहित सामाजिक दृष्टि में उनकी स्थिति दुश्चरित्र की मानी जाती है। तीसरी बात यह कि उनका बौद्धिक स्तर बिल्कुल निम्न स्तर का ही रह जाता है। वे ही अगली पंक्ति की कॉमरेड्स हैं। वे ही दरी बिछाती हैं। वे ही झंडा ढोती हैं। किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी में एक भी संभ्रांत घर की स्त्री नहीं होती है। ये सवाल आज भी मुँह बाए खड़े हैं। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा उठाए गए सवाल वामपंथी साथियों को मजबूर किए होंगे जिससे उन्होंने वर्ग-संघर्ष के साथ जाति-उन्मूलन के सवाल भी कम्युनिस्ट दस्तावेज में शामिल किया है। एक बात और सत्य है। आंबेडकरवादी साथियों में मार्क्सवाद को लेकर नाक-भौं सिकोड़ने की आदत कल भी थी, आज भी है लेकिन महाराष्ट्र में बाबूराम बागुल, नामदेव ढसाल, दया पवार, अर्जुन ढांगले, यशवंत मनोहर आदि आम्बेडकरवादी साथियों ने मार्क्सवाद का पुरजोर समर्थन किया था। बाद में, "दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र" के लेखक डॉ. शरण कुमार लिम्बाले ने भी मार्क्सवाद की अनिवार्यता को महत्वपूर्ण माना। तदन्तर, हिंदी बेल्ट में ओमप्रकाश वाल्मीकि, मलखान सिंह और कँवल भारती जैसे महत्वपूर्ण कवियों-लेखनों ने मार्क्सवाद की अहमियत को स्वीकार किया। सभी ने कहा और लिखा कि बाबा साहब मानते थे कि, "हमारे दो दुःमन हैं-ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद। दोनों से एक साथ लड़ना होगा"। आम्बेडकरवादी-मार्क्सवादियों में अभी भी यह समझा जाना शेष है कि जातिप्रथा किस तरह खत्म होगा? और क्रान्ति किस तरह होगी? क्या सर्वहारा की तानाशाही अनिवार्य है? क्रान्ति में खून एक अनिवार्य तत्व है जिसे बहाने से डॉ. आम्बेडकर ने मना किया है, इस स्थिति में दलित आम्बेडकरवादी क्या अब भी आंबेडकर साहब की ही बात को अंतिम आधार मानता है? डॉ. आम्बेडकर ने समाजवाद को स्टेट के थ्रो लाने की सलाह दी है लेकिन कम्युनिस्ट सिद्धांत में क्रांति के द्वारा ही समाजवाद स्थापित किया जा सकता है, क्या दलित मार्क्सवादी क्रान्ति की इस परिभाषा को मानना चाहते हैं?  इन तमाम सवालों पर उन तमाम आम्बेफकरवादी-मार्क्सवादी साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों को अभी भी टकराना शेष है। इस कविता में डॉ. नामदेव के दो पक्ष हैं। उन्हें बहुत ध्यान से समझे जाने की जरूरत है:
पहला पक्ष:
समझ में आया है
भारतीय वामपंथ को
वर्ग ही नहीं जातिवाद
कड़वा सच है समाज का।
(इंक़लाब जिंदाबाद, पेज -34)
दूसरा पक्ष:
जातिविहीन हो भारत
शोषण मुक्त हो भारत
हमारे सपनों का भारत
हम सब का भारत।
नारा अब यही हमारा
इंक़लाब जिंदाबाद!
शोषण मुक्त भारतवाद!
जातिवाद मुक्त राष्ट्रवाद!
इंक़लाब जिंदाबाद।
(इंक़लाब जिंदाबाद, पेज - 34)
"इंक़लाब जिंदाबाद" में स्पष्ट जातिप्रथा उन्मूलन के साथ वर्ग-विहीन समाज की अवधारणा स्पष्ट हो रही है। डॉ. नामदेव वर्गीय एकता का संकेत करते हुए "हमारे सपनों का भारत और हम सब का भारत" जैसे वाक्यों का प्रयोग अपनी कविता में कर रहे हैं। यह दलितों की नई पीढ़ी के बुद्धिजीवी का चिंतन है। इसमें आम्बेडकर के सर्वांगीड़ चिंतन की झलक है। फिर भी सवाल खड़ा है कि जातिवाद के उस भीषण प्रयोगवादी और प्रतिक्रियावादी दौर में दलित वर्गीय एकता के लिए किस तरह काम करे? क्या दलितवादी संगठनों में रहकर दलित वर्गीय एकता के लिए "मैं" से "हम" में विश्वास जगा पाएगा? निश्चित दलित जातीय उत्पीड़ित वर्ग है, निश्चित दलित सर्वहारा वर्ग है। जिसे अधिक जरूरत होती है उसे अधिक मेहनत करना पड़ता है। हम क्रान्ति की आवश्यकता और कार्यवाहियों के लिए दूसरों के सिर पर जिम्मेदारी का भार डालेंगे तो क्रान्ति हमसे उतनी ही दूर भागती जाएगी इसलिए क्रान्ति हमारी आवश्यकता है। इसे हमें भी सफल बनाना होगा। वर्ग पर आधारित दो कविताएँ "जडें" और "मालिक पेड़ों के" बहुत ही महत्वपूर्ण बातें कहती हैं। हमारा समाज वर्ग विभाजित समाज है। दोनों के अलग-अलग उद्देश्य हैं। इस कविता की चन्द पंक्तियों से कवि का चिंतन स्पष्ट है:
है एक दक्षिणी ध्रुव
और एक उत्तरी
मनुष्य-समाज बँटे हैं
और बँटे व्यक्तित्व इसमें
दो ध्रुवों पर हम भी।
(जड़ें, पेज - 20)
संग्रह की अगली कविता है "पहरा"। "पहरा" में दंगा और अवाम की स्थिति का जिक्र है। ऐसे दंगे सोची-समझी रणनीति का हिस्सा होते हैं। ये दंगे कुछ प्रायोजित कण की वजह से ही अस्तित्व में आते हैं। इनकी मूल वजह से एक देश में कई देश, एक राष्ट्र में कई राष्ट्र और एक समाज में कई समाज हो गया है। मनुष्य बँट गया है। हम एक दूसरे के विरुद्ध हैं। जिन्हें हम एक कण कहकर अस्तित्वहीन करार देते हैं, वे ही परिवर्तन की बयार रोक कर दंगा-फसाद पैदा करवा देते हैं। भारत में दंगों की शुरुआत आजादी आंदोलन में छुपी हुई है, जब अंग्रेजों को हिन्दू और मुसलमानों की एकता तोड़कर यहाँ राज करना था। वे इस कार्य में सफल भी हुए। दंगों ने हिन्दू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा कर दी जिसके परिणामस्वरूप भारत का विभाजन हुआ। आज हिन्दू, मुस्लिम और दलितों के मध्य वैमनस्य पैदा कर राजनीति किया जा रहा है। 
1946 में हुए कलकत्ता दंगे में 4,000 लोगों ने अपनी जानें गंवाई थी और 10,000 से भी ज़्यादा लोग घायल हुए थे। 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गाँधी की सिख अंगरक्षकों ने हत्या कर दी थी। इंदिरा गांधी की हत्या के अगले ही दिन इन दंगों की शुरुआत हो गई और यह दंगे कई दिनों तक चले, जिसमें 800 से भी ज़्यादा सिखों की हत्या कर दी गई। 1986 में कश्मीर में दंगा मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र अनंतनाग में हुई थी। इस दंगे में 1000 से भी ज़्यादा लोगों की जानें गई थीं और कई हज़ार हिंदू बेघर हो गए थे। भागलपुर दंगा सन 1989 में सबसे कुख्यात दंगों में से एक था। इस दंगे में 1000 से भी ज़्यादा निर्दोष लोगों ने अपनी जानें गंवाई थी। यह हिंसावादी दंगा हिंदु और मुस्लिम समुदाय के बीच हुआ था। 1992 में मुंबई में भीषण दंगा हुआ था। इस दंगे की शुरुआत दिसंबर 1992 में हुई और यह दंगे जनवरी 1993 तक चले। यह दंगे एक बार फिर हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोगों के बीच हुए थे। इन दंगों में 1000 से भी ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी। इन दंगों की मुख्य वजह बाबरी मस्जिद को तोड़ा जाना था। 1993 में इसी सिलसिले में सीरियल बम धमाके भी किए गए थे, जिनमें सैकड़ों लोगों की जान गई। 2002 में गोधरा दंगा भारत के इतिहास में होने वाले सबसे भयंकर दंगों में से एक था। इस दंगे की शुरुआत तब हुई, जब सन 2002 में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन को गुजरात के गोधरा में आग लगा दी गई थी, जिसमें 59 से ज़्यादा हिंदू तीर्थ-यात्री मारे गए थे, इसके बाद हिंदू और मुसलमानों के बीच हिंसक दंगे हुए, जिसमें 2,000 से भी ज़्यादा लोगों की जानें गई थीं। अलीगढ़ दंगा 5 अप्रैल 2006 को हिंदू और मुसलमानों के बीच हुआ दंगा था। 2007 में ऐसे ही दंगे पश्चिम बंगाल में हुए थे। देगंगा दंगा 2010 में पश्चिम बंगाल में 6 सितम्बर 2010 को हुआ था। जुलाई 2012 में असम दंगा भारतीय बोडोस और बांग्लादेश से भारत आ रहे मुसलमानों के बीच हुआ था। इस हिंसक दंगे में 80 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी थी। इस दंगे में 1 लाख से ज़्यादा लोग बेघर हो गए थे, जिन्होंने अभी तक राहत शिवरों में शरण ली हुई है। मुज़फ्फरनगर दंगा सन 2013 में हिंदू और मुसलमानों के बीच उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर शहर में हुआ था। इस दंगे में 48 लोगों की जान गयी थी और 93 लोग घायल हुए थे। 23 फरवरी 2020 की रात को, उत्तर पूर्व दिल्ली के जाफराबाद इलाके में दंगों और हिंसक घटनाओं की एक श्रृंखला शुरू हुई जिसमें 49 लोग मारे गए और 200 से अधिक लोग घायल हुए थे। 2004 से 2017 के बीच 10399 छोटे-बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए। इन दंगों में 1605 लोगों की जान गई, 30723 लोग घायल हुए। सबसे ज्यादा 943 दंगे 2008 में हुए। इसी साल दंगों में सबसे ज्यादा 167 जानें भी गईं, 2354 लोग घायल हुए। सबसे कम 2011 में 580 दंगे हुए। इस साल 91 लोगों की जान गई थीं। "पहरा" कविता के कुछ दृश्य महसूस कीजिए:
हत्यारिन भीड़ ने
लाठी-पत्थरों की बौछारों से
कर अधमरा
कोयलों की जलती भट्ठी में झोंक दिया था जिंदा,
तड़फते-मरते उस बंधु ने माँगा जब पानी,
किसी आतातायी ने ठूस दिया था उसके मुँह में जलता कोयला।
(पहरा, पेज - 11)
डॉ. नामदेव ने अपनी कविता "राष्ट्र उत्सव" में भी बँटते हुए देश, समाज और व्यक्ति के द्वंद्व और दुखों को व्यक्त किया गया है। इस कविता में भारत के दोहरे चरित्र का बहुत खूबसूरत ढंग से चित्रण किया गया है। 26 जनवरी और 15 अगस्त को देश जिस सतरंगी उन्नति को पूरी दुनिया को दिखाया जाता है और जनता उन मनोहर झाँकियों को देखने सड़कों के किनारे उमड़ी भीड़ में खुद को समाहित कर लेती है, दरअसल, वह दृश्य छद्म होता है। वहाँ भारत का जय-जय कार होता है। अखंड भारत का यशोगान होता है। विश्व गुरु की कल्पना प्रस्तुत होती है। भारत में एकता की मिशाल दोहराई जाती है लेकिन, भारत का दूसरा पक्ष कितना सत्य और यथार्थ है जिसे राष्ट्र-उत्सव देखने के उपरान्त घर लौटती भीड़ को भोगना पड़ता है। वास्तव में, वह भीड़ जब घर में पहुँचती है तो वह विभिन्न राष्ट्रों में कैद होती है, एक-दूसरे के धार्मिक बोध से सशंकित होते हैं, जाति की दीवार हमेशा खड़ी रहती है, कश्मीरी, गुजराती, बंगाली, मद्रासी, पंजाबी का बोध बना रहता है। चन्द पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत है:
जय-जय कार होता भारत!
एक भारत! विजयी भारत!
अखंड भारत! विश्व गुरु भारत!
शांति प्रिय भारत! वीरों का भारत! 
एकता का भारत! समन्वय का भारत!
(राष्ट्र-उत्सव, पेज -13)
उसी भारत का एक दूसरा पहलू भी है जो यथार्थ भारत है और आज तक कोई भी सत्ता संस्थान उस पर नियम बनाकर ब्रह्मांड के सबसे खूबसूरत मानव को उतना शानदार नहीं सजाता है जितना बेजान-बेमतलब की चीजों को सजाकर सड़क पर दर्शनीय बनाया जाता है तथा पूरी दुनिया में गौरवशाली होने का ढिढोरा पीटा जाता है। भारत का जातिवाद आधुनिकतम विज्ञान के युग में मानवता के लिए कोढ़ है।
दिन ढलता, ढलता राष्ट्र प्रेम
लौटते सभी अपने-अपने
जाति-धर्म की बन्द खाई में
बँट जाता देश, बंगाली, बिहारी,
कश्मीरी, मराठी, मद्रासी, पंजाबी में।
(राष्ट्र-उत्सव, पेज 13)
डॉ. नामदेव ने ढ़ेर सारी कविताएँ ब्राह्मणवाद पर लिखी हैं । ब्राह्मणवाद पर लिखते समय उन्होंने ब्राह्मणों के अनेक वर्चस्ववादी उपायों, चालों, सिद्धांतों, छुआछूत, ऊँचनीच, शिक्षा, संस्कृति, भाषा, भेषभूषा, बोल, चालचलन, अहंकार, व्यभिचार, दुराचार, मुखौटा, छद्म रूप, झूठ, आदेश, निर्देश, प्रपंच, विदूषकता, श्रेष्ठता दंभ, इत्यादि विषयों का खुलासा किया है।  उन कविताओं में "वेदना", "पहचान", "आजादी", "मुबारक", "कुँआ", "बेदखल", "दंभी", "शंकाएं", "दंश", "चक्रव्यूह", "जनबोध", "एजेंट", "हसीन मुखौटे", "नकली नैतिकता के पैरोकार", "नैतिक ढकोसले", "विषैले मन", "हे विदूषक", "तुम सिर्फ एक भाषा नहीं", "राजा के दरबार में", "कुत्ते की दुम", "आओ असत्य बातें करें", "मानसिक दिवालियापन", "नजरिया", "झूठी इंसानियत", "तुम्हारे अनैतिक मुहाबरे", "झूठ बोल" और "रहस्यमय" इत्यादि हैं। 
"वेदना" कविता में ब्राह्मणों और दलितों के दुख-चिंता का तुलनात्मक अध्ययन है। एक का सुख दूसरे का दुख है। ब्राह्मण तब दुखी होता है जब उसका जातीय गुरुर टूटता है, जब उसके मिथ्या इतिहास की अवधारणा पर हमला होता है, जब उसकी दंभी संस्कृति की कामयाबी की जकड़ ढीली पड़ती है, जब उसके अहंकार पर हमला होता है, जब उसकी सामंती व्यवस्था पर प्रहार होता है, जब उसके पाखंडों का विरोध होता है, जब उसके स्वाभिमान को ललकारा जाता है, जब उसकी रूढ़ मान्यताओं को खण्डित किया जाता है, जब उसके ईश्वर को स्वीकार करने से हम इनकार करते हैं, जब उसके धर्म को मानने से मना करते हैं और दलित तब दुखी होता है जब ब्राह्मण अपने वर्चस्व के लिए हरहाल में दलितों पर जुल्म ढाता है, मनमानी करता है, व्यभिचार करता है, छुआछूत करता है, वैमनस्य करता है, नीच समझता है, जमीन हड़पता है, धन छीनता है, साधन छीनता है, नौकरियों में धांधली करता है, समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व से वंचित करता है, न्याय की पहुँच से रोकता है। हम दो राष्ट्र की तरह हैं लेकिन हम एक राष्ट्र के रूप में फिर भी स्वतंत्र नहीं हैं। यथा:
उपजती है वेदना तुम्हारी,
तुम्हारे जातीय अभियान के टूटने से
तुम्हारे मिथ्या इतिहासबोध के मर्दन से
तुम्हारे दंभी सांस्कृतिक बोध के ढीले पड़ने से;
उपजती है वेदना मेरी,
तुम्हारे अत्याचारों से
तुम्हारे बहिष्कारों से
तुम्हारे नफरतों से।
(वेदना, पेज 29)
"पहचान" कविता में दलितों के शूद्र होने की दशा का वर्णन है। हरहाल में, ब्राह्मण दलितों की जाति जान लेने की जुगत में रहता है। वह खुफिया एजेंसी की तरह दलितों की परछाईं भी सूंघता रहता है और अंत में वह जाति जान ही लेता है। ब्राह्मण दलितों के समता के भाव को लगातार खंडित करता रहता है। वह अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करता है। वह अपनी संस्कृति को शुद्ध घोषित करता है। हर तरह से वह दलितों को जाति के खाँचे में ही घसीटता है। दलित बने रहना दलित की बहुत बड़ी पीड़ा है। डॉ. नामदेव सहित पूरी दलित कौम इस ब्राह्मणवादी कुचक्र से शीघ्र निकलना चाहती है। इस कविता में दलित की एक छटपटाहट देखी जा सकती है। दलित जातिप्रथा से जिस तरह निकलना चाहता है उस तरह पूरी निष्ठा व ईमानदारी से जातिप्रथा उन्मूलन के लिए दलित अपनों का साथ न लेना चाहता है और न साथ देना चाहता है। विमर्श के दौरान मुझे अक्सर बहुतेरे दलित बुद्धिजीवी मिल जाते हैं जिन्हें अपने तरह के आंबेडकरवाद से समझौता नहीं करना होता है। उन्हें जो समझ में आ गया है वहीं अन्तिमतौर पर क्रान्तिकारी आंबेडकरवाद है। वे कई बार यहाँ तक भिड़ जाते हैं कि सामान्य दोस्ती भी नहीं रखना चाहते हैं। परिवर्तन के लिए शोषित-उत्पीड़ित वर्ग को सर्वप्रथम मित्रता बनानी आवश्यक है लेकिन पढ़-लिख गया दलित, खाता-पीता दलित, कुछ संभ्रांत हुआ दलित एकता नहीं सीख रहा है, दोस्ती नहीं सीख रहा है, मिलन नहीं सीख रहा है, विश्वास न सीख रखा है न कर रहा है और न ही विश्वास लायक परिस्थिति ही तैयार कर रहा है। विचित्रता यह भी है कि ब्राह्मणों के व्यवहार से दलितों की हर जातियाँ त्रस्त हैं लेकिन अपनी साड़ी-गली जातीय अस्मिता को फिर भी नहीं छोड़ना चाहते हैं। जब तक दलित साहित्यकार इन विषयों को साहित्य के विमर्श में नहीं लाएगा, तब तक ब्राह्मणों को कोसने, गरियाने अथवा कोरी कल्पना की क्रांति से परिवर्तन नहीं होने वाला है। फिर वही बात कि, "दुखों की व्याख्या करने से कुछ नहीं होगा। सवाल है परिवर्तन कैसे किया जाय?" उदाहरण प्रस्तुत है:
लेकिन वह
सांस्कृतिक शुद्धता का दंभी
खुफिया प्रश्नों के बवंडर में
मेरे अस्तित्व को ललकारता है,
जोश और होश में
मैं भी अपनी अभिव्यक्ति की ईमानदारी से
बकता हूँ अपनी जाति-वर्ग की पहचान 
सुनकर वह
कुटिल मुस्कान और हेय दृष्टि के साथ 
आगे बढ़ जाता है।
(पहचान, पेज 31-32)
"कुँआ" कविता प्राकृतिक सौंदर्य को बिखेरती हुई स्मृतियों की कविता बन जाती है। इस कविता से मुंशी प्रेमचंद की कहानी "ठाकुर का कुँआ" याद आता है। "ठाकुर का कुँआ" का दर्द वही समझ सकता है जो उस कहानी को पढ़ा है। उस कहानी का इस कविता से सीधा संबंध है। आज तो गाँव कुँओं से मरहूम हो गए हैं। विज्ञान के विकास ने कुँआ की जगह नल, ट्यूबवेल, मोटरपम्प इत्यादि स्थापित कर दिया है। ग्रामीण ढ़ेर सारी मेहनत से मुक्त हुआ है। कुँआ संभ्रांत की पहचान थी। वह किसी बड़े ठाकुर व ब्राह्मण के घर हुआ करता था। दलित जातियाँ तब ताल-पोखरों से पानी पिया करती थीं। किसी दलित की हिम्मत नहीं थी कि किसी ठाकुर व ब्राह्मण के जगत पर चढ़ कर कुँए से एक गगरा व बाल्टी पानी भर लें। खाल खींचकर भूसा भर दिया जाता। आज हर दलित घरों में हैण्डपम्प है। शुद्ध पानी पीना कितना आसान हो गया है। यह एक बड़ी क्रान्ति है। आज एक सामान्य दलित भी साधारण नल का पानी नहीं पीना चाहता है, वह भी 150 फिट की बोरिंग का शुद्ध पानी पीता है। कहीं-कहीं थोड़ा सुख से जी रहे औसत दलित भी प्रतिदिन खरीदकर बोतल का पानी पी रहा है। यह परिवर्तन की एक पराकाष्ठा है। कवि कुँआ, चबूतरा और पुदीने की बात करके हमें नास्टेल्जिक बना देता है। हम अपने बचपन में पहुंच जाते हैं और कुँए की जगत के इर्द-गिर्द बनी पक्की चौकी व बिछाए गए ईंटे पर नहाने के सुख की अनुभूति करने लगते हैं। इन कविताओं में ब्राह्मणवाद के विचार, छल, छद्म, साम, दाम, दंड, भेद, उपाय, दलित जीवन की जिल्लतें, गरीबी, ऊंच-नीच की त्रासद स्थिति, दलित को जमीनों से बेदखल की चालाकी पूर्ण स्थिति, घुटन, अपमान, अमानवीयता, गौर बराबरी, अन्याय आदि की तरतीबवार जिक्र है। कविता में वह दृश्य:
एक रचनाकार ने लिखा था "ठाकुर का कुँआ"
और था किया सीमान्तीय डर को एक्सपोज
फिर कुछ सालों बाद पता चला
तुम अब भी हो जातिगत जकड़न में
तुम अब भी हो अनुपलब्ध दलित जन में
तुम अब भी हो बने हुए जिंदा साक्षी
बर्बरता और अन्यायों के।
(कुँआ, पेज 36)
"बेदखल" कविता में कुछ यथार्थ है तो कुछ परिकल्पना है। परिकल्पना में दलित का सपना व दलित की आशा देखना अधिक श्रेश्कर है। यह कविता हमें याद दिलाती है कि ब्राह्मणों ने दलितों को घर, जमीन, संसाधन, खेत, बीज, खाद, इतिहास, शिक्षा,भाषा, विचार, संस्कार, व्यवहार से वंचित कर दिया था। बदले में घुटन, भूख, बलात्कार, मार, संत्रास, बेगार, प्रताड़ना, झिड़क, गाली, लातघूसा, मेहनत दिया था। दलित मनुष्य जैसा नहीं था, वह सिर्फ मनुष्य का एक पुतला था। ब्राह्मणों ने दलितों को चौतरफा बेदखल कर दिया था। इस कविता की एक खूबी यह है कि वह दलितों में एक सपना पैदा करती है, एक आशा भरती है कि कल यदि तुम्हारा था तो आने वाला कल हमारा होगा। समय का अपना चक्र है। चक्र परिवर्तनशील है। कल हमारा इतिहास होगा। कल हमारे घर, जमीन, खेत, बीज, संसाधन होंगे। हम सुखी होंगे। इस कविता की एक खूबसूरत बात यह है कि इस कविता में बदले की भावना नहीं है जो अनेक दलित साहित्यकारों से बिल्कुल भिन्न और स्वागत योग्य है। मैं उन पंक्तियों को उद्धृत किए बिना नहीं रह सकता:
कहूँगा तुमसे!
मत जाओ बाहर,
नहीं हूँ बर्बर अमानवीय तुम सा 
समता और इंसानियत का रसिया मैं
मोहब्बत से गले लगाता हूँ
दोनों बराबर के हैं इंसान
समझो इसको
वरना, बाहर का रास्ता दिखाता हूँ।
(बेदखल, पेज 43)
"दंभी" और "शंकाएँ" कविताएँ ब्राहमण के दंभ और अभियान की व्याख्या का सूत्र हैं लेकिन "दंश" कविता उसके छद्म रूप की व्याख्या है। अक्सर कहते हुए सुना जा सकता है कि ब्राह्मण और सर्प में से अधिक जहरीला ब्राह्मण होता है। दोनों एक साथ मिल जाँय तो सबसे पहले ब्राह्मण से निपटना चाहिए। सर्प के काटने से बच जाने की पूरी संभावना बची रहती है लेकिन ब्राह्मण का विष यदि नशों में प्रवेश कर गया तो मृत्यु निश्चित है। वही निरंतर कही गई उक्ति को कविता के माध्यम से डॉ. नामदेव ने भी दोहराया है कि "दंश किसका गहरा/विषधर का या विष का/शायद दोनों का/लेकिन इंसानी विष सबसे गहरा।" नामदेव ने लिखा है कि ब्राह्मण की वाणी मधुर होती है क्योंकि वह बनावटी बोलता है, झूठ बोलता है, छद्म बोलता है। झूठ को प्यार से बोलना एक ब्राह्मण की पहचान है। ब्राह्मण झूठ बोलकर ही दलितों के ख्वाब का हरण करता है। ब्राह्मण ही असली विषधर है। सर्प विषहीन हो सकता है लेकिन एक ब्राह्मण शाश्वत अजेय विषधर है। ब्राह्मण बहुरूपिया है। वह किसी भी रूप में ठगता है। एक अन्य कविता "चक्रव्यूह" के कुछ अंश में ब्राह्मण के चरित्र को देखा जा सकता है:
तुम्हारे बोल वचन में
सदा अहंकार देखा है
तुम्हारी कल्पित दुनिया को
संकीर्ण होते देखा है
तुम्हारी स्वार्थी सोच को
फलीभूत होते देखा है
तुम्हारे चक्रव्यूह में फँसकर
पिछले इंसा को पिटते देखा है
तुमको अब भी कभी
खैरलांजी, कभी मिर्चपुर में
कभी कहीं, आग उगलते देखा है।
(चक्रव्यूह, पेज 54)
धर्म की एक सबसे बुरी बात यह है कि यहाँ के बाबा, ओझा, मुल्ला, फ़क़ीर आस्था के नाम पर लोगों को गुमराह करते हैं, ठगते हैं, धोखा देते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं। सच तो यह है कि सत्ता प्रतिष्ठान को मिलाकर इस देह की व्यवस्था जनता को भाग्य-भगवान की जकड़ से निकलने नहीं देना चाहती है। यदि देश की अवाम को शिक्षित कर दिया जाय और वह वैज्ञानिक अवधारणाएँ ग्रहण कर ले तो वह अपने भाग्य को ईश्वरीकृत नहीं मानेगा। ऐसी स्थिति में जनता सरकारी संगठनों से रोजगार की भी माँग करने लगेंगे, फिर सरकार को उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नौकरी देनी पड़ेगी। यदि जनता की आवश्यकता की पूर्ति व्यवस्था द्वारा होने लगे तब इन धार्मिक धकोसलेबाजों की कोई चाल न चले। फिर लोग बाबाओं के फिराक में न पड़ेंगे। इस तरह यह व्यवस्थागत गड़बड़ियाँ हैं जिससे उसे जनता की आवश्यकता का ध्यान नहीं रखना पड़ता है। सरकार और व्यवस्था अनेक जिम्मेदारियों से न सिर्फ बच जाते हैं और कम लागत में अधिक मुनाफा कमाते हैं बल्कि जनता यह जान ही नहीं पाती है कि शिक्षा और नौकरी की जिम्मेदारी सरकार की होती है। जनता तो अपने हर कमी को अपने प्रारब्ध और कर्म का फल मानती है। जनता के इसी चिंतन का फायदा उठाकर साधू-सन्यासी और आस्था के कारोबारी जनता को डिग्री, नौकरी, वर, कन्या, संतान, घर, गाड़ी, घोड़ा, जगह, जमीन, शानोशौकत के नाम पर जनता को धर्मांधता में फँसाकर लूटते हैं। इस षडयंत्र को सरकार जानती है। सरकार इस धर्मांधता को दूर भी कर सकती है लेकिन यह धर्म से जुड़ा प्रश्न है, इसे इस देश के धर्म के ठीकेदार खत्म नहीं करने देना चाहते हैं। हमारे देश में ब्राह्मणों का सारा कारोबार धार्मिक है। धर्म के आड़ में इनके वर्चस्व का नियम सफल रहता है। धर्म के उन्माद को बढ़ाकर इस देश के अल्पसंख्यकों और दलितों का भरपूर शोषण और अत्याचार किया जाता है। कवि लिखता है:
आस्तिक लोग कहते हैं उसको धर्मांर्थ!
नास्तिक लोग कहते हैं उसको कारोबारी!
जो भी है यह सच है
आस्था का व्यापार
चल रहा है निरंतर
श्रमिक जन लूट रहा है भक्ति के नाम पर
कुटिल बुद्ध जन लूट रहा है आस्था के नाम पर
जो भी है यह सच है
इमोशनल अत्याचार की शिकार है जनता!
इमोशनल व्यापार की शिकार है जनता!
(इमोशनल व्यापार, पेज 23)
डॉ. नामदेव की "एजेन्ट", "हसीन मुखौटे", "नकली नैतिकता के पैरोकार", "नैतिक ढकोसले", "हे विदूषक", "आओ असत्य बोलें", "झूठ बोल", "तुम्हारे नैतिक मुहाबरे", "झूठी इंसानियत" जैसी कविताएँ ब्राह्मणों के चरित्र का उद्घाटन जरूर करती हैं लेकिन ये सभी कविताएँ कहीं न कहीं अपने पूर्ववर्ती कविता की पुनरावृत्ति हैं। नामदेव जी अपने ऐसी सभी कविताओं में कहते हैं कि ब्राह्मण अपने साम्राज्य के लिए बहुरुपिया है, भेष बदलता है, मधुर बोलता है, कभी कथा वाचक बन जाता है, कभी भंजक, कभी, रक्षक, कभी भक्षक, कभी भगत, कभी नरम, कभी गरम, कभी श्लील, कभी अश्लील, कभी सगुण, कभी निर्गुण, कभी भक्त, जभी झूठा, कभी असली, कभी नकली रूप धारण कर लेता है। सत्ता प्रतिष्ठान के संचालकों की स्थिति बहुत ही अनैतिक होती चली जा रही है। डॉ. नामदेव ने अपनी कविताओं में ब्राह्मणवादियों के सत्ता-प्रतिष्ठान के वर्चस्ववादियों के हर दुःचरित्रता, झूठ, फरेब, कुकृत्य को निरूपित किया गया है।
डॉ. नामदेव ने अपने संग्रह की दो कविताओं "बाबा भीम" और "युग पुरुष" में डॉ. आम्बेडकर साहब को मुक्तिदूत, एकता के प्रतीक, ज्ञान के भंडार, अद्वितीत, महानायक संबोधित करते हुए कवि ने समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, कल्याण और परिवर्तन का युग पुरुष कहा है। "तुम बहुत याद आए" किसी अपने को याद किए जाने की एक परंपरा भी है और जरूरत पर वह याद भी आता है। ऐसी स्थिति में नामदेव जी ने बाबा साहब डॉ. आम्बेडकर को उनके विभिन्न रूपों में याद किया है। वहीं "गाड़ीवान"  नामक कविता में डॉ. आम्बेडकर के संघर्ष और जातीय दंश की कहानी को लिखकर दलित जातियों को संघर्ष की प्रेरणा दिया गया है। "महापरिनिर्वाण" और "तुम आजादी हो" बाबा साहब आम्बेडकर के प्रति भावपूर्ण प्रतीकात्मकता का बोध कराती है। 
डॉ. नामदेव ने स्त्री विषयक कविताएँ भी लिखा है।  "आँखें" और "बह रही कैसी यह बयार" कविता में पुरुष प्रधानता की मान्यताओं पर लिखा है। उनका कहना है स्त्री अपने अंगों-उपांगों से नहीं जानी जानी चाहिए। उसकी आँखें मृगनयनी हैं, कमलनयनी हैं, झील सी हैं, समंदर जैसी नीली है, इत्यादि सौंदर्य के प्रतिमान स्त्री को गुम कर देते हैं। सदियों से स्त्री के अंगों को अनेक उपमाओं से विश्लेषित कर उसी के अनुरूप उसे सजाते हैं और उसी के अनुरूप देखते और व्यवहार करते हैं। एक लम्बे अरसे से कहते-कहते स्त्री भी उसी के अनुरूप ढल गई। वह भी मानती है कि उसकी आँखें खूबसूरत हैं। उसकी आँखें पुरुषों को लुभाती हैं। पुरुष भी सौंदर्य के उसी प्रतिमान को अंगीकार कर चुका है। स्त्री और पुरुष दोनों ही आँखों को आँखें नहीं समझते, उसे सुन्दरता के प्रतिमानों में देखते हैं। स्त्री के बाल, मस्तक, आँख, नाक, कान, गाल, होंठ, गर्दन, कंधा, सीना, वक्ष, कमर, जांघ, हिप, पैर, हाथ, अंगुलियाँ, नाखून सभी को सौन्दर्य प्रतिमानों में बाँध दिया गया है। पुरुष तो स्त्री को सौंदर्य की लिप्सा से देखता ही है, स्त्रियाँ भी स्वयं को सौंदर्य की प्रतिमूर्ति समझने की भूल कर बैठीं। मातृसत्ता उन्मूलन के बाद स्त्रियों में अनेक परिवर्तन आए और उन्होंने धीरे-धीरे उसे आत्मसात कर लिया। वह उनके शोषण का हथियार हो गया। यह अलग बात है उन्ही प्रतिमानों के आधार पर स्त्रियों ने पुरुषों को अपने तलुओं तक को थूक कर चाटने को मजबूर कर दिया लेकिन इस अवस्थिति ने स्त्री सत्ता को वापस अपनी स्थिति में आने नहीं दिया। अनेक गलीज परिस्थितियों से गुजरने के बाद भी पुरुष ने स्त्री को भोग की वस्तु ही समझा है। स्त्री देह को संभोग के उचित समझा है। उसके अंगों को मर्दन और चुम्बन की वस्तु समझा है। स्त्री देह पुरुष के लिए कौतुहल से कम नहीं है बल्कि अधिकतर स्त्रियाँ भी अपनी देह को असेट समझ बैठी हैं और उपभोग की विषय-वस्तु भी। अब पुनः स्त्रियों में नारीवादी चेतना ने करवट बदला है। अब स्त्रियों के मध्य स्त्री के अस्तित्व और स्वरूप की चर्चा प्रारम्भ हुई है। स्त्रियाँ पुरुषप्रधानता के विरुद्ध खड़ी हुई हैं। अनेक पुरुष भी स्त्री के विचारों को महत्व देने लगे हैं और स्त्री के पुरुषवादी नजरिए को खारिज करने शुरू किए हैं। नामदेव की "आँखें तुम्हारी" ऐसे ही प्रतिरोध की एक अच्छी कविता है। प्रस्तुत है पुरुषवादी सौंदर्य के प्रतिमानों के विरुद्ध लिखी कविता का अंश:
आँखें तुम्हारी
सिर्फ तुम्हारी हैं,
मृगनयनी
कमलनयनी
झील सी आँखें
समंदर जैसी नीली आँखें
हैं ये पुरातन प्रतिमान सौंदर्य के
जिसमें गुम हो जाती है
तुम्हारे मनुष्य होने की पहचान।
(आँखें तुम्हारी, पेज 16)
डॉ. नामदेव की स्त्री विषयक और भी कई कविताएँ हैं, जैसे-"खामोशी तुम्हारी", "मुस्कुराहट" और "दोस्त"। "दोस्त" कविता में नाम के अनुरूप कवि ने "स्त्री को" एक "समग्र मनुष्य" होने का सम्मान दिया है। वह स्त्री को एक "लिंग" नहीं समझते हैं। वह स्त्री को "देवी" कह कर पराया व अजनवी नहीं कहना चाहते हैं। वह कहते हैं कि स्त्री एक जीवित प्राणी है। वह भी स्पंदित होती है। वह किसी पुरुष की ही तरह सम्पूर्ण मनुष्य है। पुरुष अधूरा मनुष्य है। पुरुष स्त्री के साथ ही पूरा होता है। उन्हीं के शब्दों में स्त्री का रूप स्मरण करने लायक है:
और तुम हो सत्य और शाश्वत
उपस्थिति तुम्हारी
जीवन स्पंदन है
स्वर तुम्हारा
चेतन क्रंदन है
हो तुम वह अनन्त आकाश
प्रस्फुटित होता है जहाँ
जीवन दिन-रात
तुम वह मणि भी हो
जो मात्र हो शोभायमान
तुम वह साथी हो
तुम वह विचार हो
जो आधे मनुष्य को
करता है पूरा।
(दोस्त, पेज 59)
एक सामान्य मनुष्य भी दार्शनिक होता है। हर व्यक्ति जीवन के सार को महसूस करता है। एक सामान्य मनुष्य अपने अनुभूति की व्याख्या उस रूप में नहीं कर पाता है जिस तरह एक स्कॉलर करता है। हर मनुष्य यह अनुभूति करता है कि जीवन क्या है? मृत्यु क्या है? जीवन का प्रारंभ कैसे हुआ है और क्यों हुआ है?  जीवन अन्ततः पदार्थ है। एक पदार्थ में जीवन कैसे संचारित होता है? मनुष्य स्वतः चलता है, बोलता है, खाता-पीता है, बोल-विचार करता है, न जाने क्या-क्या करता है, आखिर यह सब कैसे करता है? कौन करवाता है? जो करवाता है वह कहाँ रहता है? उसका स्वरूप कैसा है? सूरज, चाँद, सितारे कैसे स्थिर हैं? मनुष्य में अजीब-अजीब प्रश्न पैदा होते हैं। उन प्रश्नों के उत्तर की खोज में ही यह अशिक्षित आदिम जानवर स्कॉलर बना है, दार्शनिक हुआ है। हम कविता-कहानी लिखते-लिखते कभी-कभी बहुत एकांत में पहुँच जाते हैं जहाँ एकाकीपन के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है और फिर वहाँ हम बहुत व्यक्तिगत होकर जीवन की कहानी को सोचते हुए अनेक प्रश्न पर चिंतन करने लगते हैं। उन्हें हम अपने कविता-कहानियों में रेखांकित करते हैं। इसी तरह डॉ. नामदेव भी जीवन के उस छोर पर खड़े होकर "रेत", "बादल", "झुरमुट", "मेरी निजता" और "मेरा मन" जैसी कविताएँ  लिखने को बाध्य हो जाते हैं। "रेत" एक दार्शनिक अनुभूति की कविता है। कविता में तत्वों का क्रम बहुत खूबसूरत निष्पत्तियों के साथ व्यवस्थित की गई हैं। प्रारम्भ में भी रेत और अंत में भी रेत। रेत ही जीवन जा आधार है। ज्ञान, विज्ञान, शासन, सत्ता, धन और ऐश्वर्य सब कुछ रेत की वजह से हैं।  कितना खूबसूरत लिखा है:-
युग बीत जाता है
समय बीत जाता है
सभ्यताएँ नष्ट हो जाती हैं,
कुछ नदियाँ सूख जाती हैं
कुछ नदियाँ दिशाएँ बदल लेती हैं,
बदल जाता है मिट्टी का रंग
परन्तु नहीं बदलती है रेत। (रेत, पेज-15)
"बादल" कविता को पढ़कर पदार्थ और भाव के बोध हो जाते हैं। पदार्थ से भाव उत्पन्न होता है। हालाँकि, यहाँ भी आस्तिक और नास्तिक का झगड़ा है। हर आस्तिक मानता है कि यह संसार भाव की उपज है। भाव निराकार है। भाव ओंकार है। यह अनहद है। भाव ईश्वर का चमत्कृत विधान है। भाव से ही पदार्थ की उत्पत्ति होती है। फिर अन्य अनेक रचनाएँ संभव होती हैं। वहीं नास्तिक अर्थात पदार्थवादियों का मानना है कि इस सार्वभौम की उत्पत्ति व सांसारिक रचनाओं के लिए किसी ईश्वरीय शक्ति की जरूरत नहीं है। सार्वभौम और पदार्थ अनादिकाल से अस्तित्व में हैं। पदार्थ, उसका हिग्स फील्ड तथा उसमें निहित प्रक्रियापुंज सर्वत्र और सदैव से विद्यमान रहे हैं। पदार्थ में निहित प्रक्रियापुंज के असंख्य नियमों से प्रकृति में अनेक पिण्ड और जीव बनते और पैदा होते हैं। चीजें एक प्रक्रिया में बनती हैं और एक प्रक्रिया में विनष्ट होती हैं। इस कविता की कुछ पंक्तियों से यह दर्शन प्रमाणित हो उठता है:
बादल ने कहा
सच है
ये संसार है
तो मैं हूँ....।
(बादल ने कहा, पेज 55)
सार्वभौम की प्रक्रिया का एक विस्तार मेरी निजता में है। "मैं कौन हूँ?" एक ऐसा विषय है जिस पर विद्वानों ने कई-कई ग्रंथ लिखे हैं लेकिन इस "मैं" के बारे में जानना अभी भी रहस्य बना हुआ है। आखिर यह "मैं" कौन है? क्या आत्मा, क्या शरीर, क्या साँस, क्या ईश्वर? "मैं" कहता है-यह मेरी आत्मा है, यह मेरी शरीर है, यह मेरी आँख, कान, नाक, मुँह, पेट, पीठ इत्यादि है। जब इसमें से कुछ भी "मैं" नहीं है तो आखिर "मैं" कौन है? इस "मैं" को डॉ. नामदेव ने बहुत सरलता से समझा दिया कि इस "मैं" जिसे वे "मुझे" शब्द से संज्ञायित करते हैं-वे मेरी चेतना और मेरी सांसों द्वारा रची गई हैं। "मैं" कोई रहस्य नहीं है। शरीर की चेतना ही "मैं" का निर्धारण करती है। चेतना के विखंडित हो जाने से शरीर स्पंदित होना बंद कर देती है। ऐसी स्थिति में शरीर की सभी चैतन्य स्थिति की क्रियाएँ बन्द हो जाती हैं और मनुष्य को मृत घोषित कर दिया जाता है। मृत शरीर का मोनोलिथिक सिस्टम स्व को "मैं" नहीं बुलाया पाता है। शरीर की चेतना ही शरीर का "मैं" है। इस कविता का दर्शन ब्राह्मणवादी संजलों को बहुत कम शब्दों में नंगा कर देता है:
मेरे शब्द
मेरी चेतना
मेरी साँसें
रचती हैं मुझे।
(मेरी निजता, पेज 62)
परिवर्तन प्राकृतिक नियम है लेकिन प्रकृति में हुए परिवर्तन स्वतः इतने स्थाई हो जाते हैं कि वे चिरकाल के लिए तो नहीं किन्तु सदियों के लिए स्थिर हो उठते हैं। स्वतःस्फूर्त नए परिवर्तन के लिए अपेक्षा इसलिए महत्वहीन हो जाता है क्योंकि मनुष्य की वय और प्रकृति का रूपांतरण में सदियों का अंतर होता है। यह सही है कि एक न एक दिन मनुष्य की कल्पना का संसार बनेगा लेकिन हो सकता है तब तक कोई ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाय कि मनुष्य स्वयं ही अस्तित्व से बाहर हो जाय। मनुष्य मनुष्य इसलिए बन सका है क्योंकि प्रकृति के साथ संघर्ष में इसे विवेक प्राप्त हुआ है। मनुष्य विवेक से परिवर्तन की गति में इजाफा कर देने का कौशल रखता है इसलिए वह सदियों के मध्य होने वाले परिवर्तन को कुछ दसकों में हासिल कर लेता है। सिंधु-घाटी सभ्यता से आज तक अनेक परिवर्तन हुए लेकिन वैदिक सभ्यता और भी रूढ़ होती चली गई जिससे एक वर्ण और उसकी जातियाँ अमानुषिक अवस्था तक पहुंचा दी गईं। लगभग 2500 वर्ष पूर्व बुद्ध ने जड़ होती व्यवस्था को तोड़ने का प्रयास किया किन्तु संपत्तियों और संसाधनों को निजी हाथों में कैद करने की मनुष्य की लालच खत्म नही हुई जिसके कारण एक वर्ग हमेशा संपत्ति और साधन विहीन बना रहा। डॉ. आम्बेडकर साहब ने भी कहा है कि "संपत्ति का व्यक्तिगत मालिकाना एक वर्ग को तो सुख देता है किंतु दूसरे वर्ग को दुख देता है।" किसी भी तरह के उत्पादन और उसके संसाधनों पर वर्चस्व के लिए देश की ब्राह्मणवादी व्यवस्था की श्रेष्ठ जातियों ने भारत की अन्य जातियों को संसाधन विहीन बनाए रखने का हर संभव प्रयास निरंतर किया तथा आज भी उनका उद्यम जारी है। वर्तमान में चाहे जेएनयू में उत्पात हो, शाहीनबाग में उत्पात हो, दिल्ली दंगे हों, सीएए, एनआरसी और एनपीआर हो, नोटबन्दी हो, मोब्लिंचिंग हो, तीन तलाक हो, गौहत्या हो, इत्यादि सिर्फ वर्चस्व के लिए किया-कराया जा रहा है। अल्पसंख्यकों पर आरोप वर्चस्व का हिस्सा है। दलितों के मध्य उभरते सवर्णों का आम्बेडकर प्रेम वर्चस्व का हिस्सा है। आरक्षण की राजनीति वर्चस्व का हिस्सा है। जय भीम-जय मीम का आरोप वर्चस्व का हिस्सा है। गजवा-ए-हिन्द का आरोप वर्चस्व का हिस्सा है। हिंदुत्व के विरुद्ध दलित-मुस्लिम के गठजोड़ का आरोप वर्चस्व का हिस्सा है। दलितों के मध्य सर्वजन का सिद्धांत वर्चस्व का हिस्सा है। दलितों की राजनीति में अनेक समुदायों की उत्पत्ति और उसके विपरीत विचार दलितों के एकता को तोड़ने के लिए वर्चस्व के सिद्धांत का हिस्सा है। डॉ. नामदेव जैसे स्कॉलर ने जब इन माहौलों का अध्ययन किया होगा तो वे प्राकृतिक परिवर्तन और मनुष्य के हस्तक्षेप के परिवर्तन का भी अध्ययन किया होगा। अनेक माहौल और अनेक परिस्थितियों को संज्ञान में लेने के उपरांत ही नामदेव जी ने मनुष्यकृत परिवर्तन को प्रेफर किया होगा। उन्होंने दलित समुदाय को अपने कविता के माध्यम से याद दिलाया कि शांत लहरों में भी ऊर्जा होती है। ऊर्जावान लहरें गरज सकती हैं। शांत समुद्र की बीहड़ आवाज समुद्र के किनारे खड़े होकर सुनिए। निश्चित कोई अकेला खड़ा व्यक्ति घबरा जाएगा। कवि ने बहुत ही मुलायम वस्तु-पानी और लहरों से दलित की तुलना की है। उन्होंने बताया है कि पानी और लहरों में गर्जना की दहाड़ कितनी तीव्र हो सकती है, और एक अंतराल में वह निश्चित घटती है। हवा की तुलना भी दलित से की है। हवा कितनी संवेदनशील और सॉफ्ट होती है। हवा की तुलना अक्सर कवि स्त्री के आँचल से करता है लेकिन वही आँचल जब इंक़लाब के परचम की तरह काम करते लगते हैं तो उसके मासूमियत से कठोरता का अंदाज़ लगा पाना शोषकों के लिए मुश्किल ही नहीं असहज भी हो उठता है। इस सिलसिले का एक उदाहरण उनकी कविता
"गर्जना" से देना उचित होगा:
तलवार रूपी वैचारिक धार
पड़ गया था कुंद जो
को शान दे रहा है लगातार
दिखाने के लिए नहीं,
काटने के लिए तेज धार
सच में अब फिजा लगती है
बदली-बदली कुछ अलसाई सी
कुछ मादक सी कुछ अपनी सी
सच में, 
शांत थी समंदर की लहरें,
कर रहीं अब गर्जना।
(गर्जना, पेज 41)
लेकिन, गर्जना के पूर्व की परिस्थियाँ कुछ विशेष होती हैं। एक कहावत है, "बादल की पहली बूँद को पृथ्वी पर गिर कर फना होना ही पड़ता है" लेकिन निरंतर फना होने वाली बूँदें ही पृथ्वी को कीचड़ में परिवर्तित कर देती हैं। निरंतर पड़ने वालीं बूँदें जलपलावन उत्पन्न कर देती हैं। इस सम्बन्ध की एक कविता है "बारिश की बूँदें"। बारिश की बूँदों की आवाज़ सुरमई है लेकिन क्षणभंगुर है, फिर भी अपने होने का अहसास करा रही है। कवि उन बूँदों में अपने होने का अहसास कर रहा है। कवि विचारमग्न है कि वह जातिप्रथा के दीवाल में कीलें ठोककर उसके नींव की ईंट हिला रहा है। कवि स्वीकार करता है कि वह बूँदों और उसकी आवाज की भाँति क्षणिक है फिर भी वह लगातार अपने कर्म में रत है। वह सुनिश्चित कर उठा है कि हमारी यह हिम्मत और हिमाकत ब्राह्मणवाद की न सिर्फ चूले हिला देंगी बल्कि एक न एक दिन हम जातिप्रथा उन्मूलन में कामयाब भी होंगे। इस कविता में विचार शब्दों के भीतर से उत्पन हो रहे हैं। अक्सर, हमारी पीढ़ी के कवियों की कविताएँ विचार प्रधान होती हैं। कविता में शब्द नहीं विचार दिखाते हैं। आज दलित कविताएँ अपने स्वरूप को दिखाने में दिलचस्पी रखती हैं अथवा भोगे को उसके रूप में रख देने को कविता कहते हैं। कविता में कला ढूढना परम्परावादी होना या ब्राह्मणवादी होना या शास्त्रीय होना है जो दलित साहित्य के सौंदर्य के विरुद्ध सिद्धांत का प्रतिपादन करता है। इस लिहाज से डॉ. नामदेव की भी अधिकतर कविताएँ शास्त्रीय सौन्दर्यबोधक नहीं हैं। कवि की कविता "बारिश की बूँदें" शास्त्रीय सौंदर्य के अनुसार भी सौंदर्यपूर्ण है और दलित साहित्य के सौंदर्य के पैरामीटर पर भी वह अपनी सार्थक परिणति देने में समर्थ है। मैं इसे एक अच्छी कविता की श्रेणी में रखता हूँ। आप स्वयं इस कविता को पढ़कर इसके मूल्यबोधों तक पहुँच सकते हैं। प्रस्तुत है कवितांश:
बारिश की बूँदें
गिर रही हैं
टापों की सुरमई ध्वनियाँ
क्षणभंगुर,
अस्तित्व का बोध करा रही हैं
बूँदों को पता है
जब तक वे बरसेंगी
उनके होने का अहसास बना रहेगा;
बरसती बूँदें
मेरे अंतस से कदमताल 
करते हुए बरस रही हैं।
(बारिश की बूँदें, पेज 53)
"बारिश की बूँदें" संघर्ष और आंदोलन को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करती हैं। ऐसी कविताओं के प्रभाव से क्रान्ति पुरुष का जन्म होता है। कवि की एक कविता "मेरा दोस्त अब बदल रहा है" है। यह कविता "बारिश के बूँद" की बाद की कड़ी की कविता मानी जा सकती है। एक में मनुष्य महसूस करता है, फिर मनुष्य अपने को उस परिस्थिति के लिए तैयार करता है। मनुष्य जिस परिस्थिति का आदी हो गया है, उस परिस्थिति की कमियों-खामियों को महसूस कर उसको त्यागने का संकल्प ग्रहण करते हुए एक नई परिस्थिति के लिए स्वयं को समर्पित करना एक महान कार्य है। उसने देखा है कि उसके जैसे कुछ सदस्य पुरातन को छोड़ रहे हैं। अब वे ब्राह्मणवादी झाँसों को समझ रहे हैं। अब वे माथापच्ची कर रहे हैं। अब वे पाखंड से ऊपर उठ रहे हैं। अब वे मानवता की बात करने लगे हैं। अब वे अहंकार भी छोड़ रहे हैं। बहुत से साथी ऐसे हैं जो जातीय नफरत को त्याग कर प्रेम और भाईचारे की बात करने लगे हैं। बहुत से लोग प्रपंच छोड़ चुके हैं। लोग जीवन का अर्थ खोज रहे हैं। कवि कहता है कि उम्मीद है लोग जाति-धर्म के नशे को छोड़कर जीवन के सच्चे अर्थ को जीने का उद्यम करें। कविता में यहाँ वर्गीय एकता का प्रयास दिखता है। कवि लिखता है:
मेरा दोस्त अब बदल रहा है
जीवन को अब समझ रहा है
जीवन क्या है?
अब इस पर माथापच्ची कर रहा है
ज्ञान के पास धीरे-धीरे जा रहा है
पाखंड से पार जा रहा है
मानवता को समझ रहा है
मेरा दोस्त अब बदल रहा है।
(मेरा दोस्त अब बदल रहा है, पेज -77)
परिवर्तन के निरंतर परिवर्तन की यह आंदोलन रचती हुई कविता है। "तुम्हारी बंदूकें" कविता काव्य सौंदर्य से परिपूर्ण है। कवि ने प्रतीक रूप में जनता और जनमत के साथ पूँजीवादी और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अंतर्द्वंद्व को परिभाषित करते हुए वर्ग-शत्रु के गहराती खाई और अंजाम को स्पष्ट किया है। सच तो यह है कि शाहीनबाग से लेकर दिल्ली दंगे तक कि शिनाख्त इस कविता में कवि ने पूर्व ही रेखांकित कर दिया है। जनता जब शासन और प्रशासन की जाजातियों तथा बरजोरी से ऊब जाती है तो डरना बन्द कर देती है। जनता की सहिष्णुता जब असहिष्णुता से परिवर्तित होती है तो या तो जनता अराजक हो जाती है जो सामाजिक सौहार्द को ही नष्ट कर देती है अथवा जनता किसी अच्छे नेतृत्व में क्रान्ति को अग्रसारित करती हुई एक नए शासन पद्धति को स्थापित करती है। खैर, जो भी हो जनता सत्ता और प्रशासन के नाक की नकेल जरूर बन जाती है। बानगी देखिए-
अब तुम्हारी बंदूकों की आवाज से
चीलें भागती नहीं,
हरकत में आ जाती हैं
और...
अब मेरे शहर की चीलों का
हरकत में आना
जितना सामान्य है
उससे कहीं ज्यादा खतरनाक है।
(तुम्हारी बंदूकें, पेज-69)
डॉ. नामदेव की कविताओं में प्रगतिशीलों के मुखौटे, जनवादियों के नकली गीत, साम्प्रदायिकता छद्म राष्ट्र-प्रेम, दार्शनिक अवधारणाएँ, स्त्री शोषण, स्त्री के सौंदर्य प्रतिमान, खंडित मनुष्य, वर्ग-संघर्ष, आस्था का व्यापार, विश्वास का ढोंग, ब्राह्मणवाद, जातिवाद, क्रान्ति, व्यक्तिगतबोध, न समझे जाने का दर्द, उम्र की एक समझ, निजात पर विचार और दलितों के आंदोलित होने की विवशता विषयों की बाहुल्यता है। इन अनेक विषयों पर उन्होंने बहुत ही बेबाकी से कलाम चलाया है। कविताओं को लिखते समय "मेरा दोस्त अब बदल रहा है" में जाति चेतना के अतिरिक्त वर्ग एकता को भी स्थान दिया है। इस संबंध में मेरा मानना है कि सवर्ण जातियाँ के अधिकांश लोग उदार हुए हैं और दलित जातियों के बहुसंख्य लोग सवर्णों के प्रति बदले की भावना से ओतप्रोत हए हैं। इसी कारण, परम्परावादी सवर्णों के नेतृत्व में सामान्य बुद्धि का सवर्ण अपनी जातीय एकता और अस्मिता के लिए संगठित हुए हैं। तथाकथित प्रबुद्ध दलितों के चिंतन के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप गरीब दलित सवर्णों से पिट रहा है, बलात्कार बढ़ रहा है, दुर्भावना बढ़ रही है, जिस भाईचारा के आविर्भाव की संभावना उत्पन्न हो रही थी, वह दूषित हो रहा है। इसका कारण दलितों की यह सोच है कि ब्राह्मण यूरेशियन है, बाहरी है, विदेशी है, आक्रांता है और इन विदेशी आक्रांताओं को इस देश से खदेड़ देना चाहिए। दलितों की यह सोच बनी जरूर है लेकिन इस सोच के पीछे न इस्लामिक चाल है, न माओवादियों की चाल है, न चीन की चाल है और न मार्क्सवादियों की चाल है। परम्परावादी ब्राह्मण (अब आरएसएस) एक ऐसा चालक वर्ग है जो सदियों से अपनी की गई कार्यवाहियों का नाम स्वयं नहीं लेते थे बल्कि किसी उस व्यक्ति का नाम प्रचारित करते थे जिसकी कौम को कुछ समय बाद गुमराह किया जा सके; जैसे: रामायण लिखा किसी ब्यद्धिमान-चालक ब्राह्मण ने और बड़ी हुशियारी से बता दिया गया कि वाल्मीकि ने लिखा है। चलो, मान भी लें कि वाल्मीकि ने लिखा था तो क्या वाल्मीकि ब्राह्मण नहीं हो सकता है। वह था भी ब्राह्मण। उसका नाम वाल्मीकि था लेकिन उसके नाम का रूपांतरण उसकी जाति के रूप में कर उसकी जाति ही वाल्मीकि घोषित कर दिया गया। उस समय कोई भी शूद्र शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता था। कुछ ज्ञान हो भी जाय तो वह रामायण जैसा ग्रंथ नहीं लिख सकता था। यदि लिख भी ले तो कोई ब्राह्मण उसे स्वीकार नहीं करेगा। और, शूद्रों की इतनी औकात नहीं थी कि वे उस समय में उसका संरक्षण करते और छपवा सकते थे। इसी तरह मनुस्मृति का रचयिता भी ब्राह्मण था लेकिन क्षत्रीयों का दुरोपयोग करना था इसलिए कह दिया कि मनु ने मनुस्मृति लिखा था और वह क्षत्रीय था। अब उन्हें यह कहने का अधिकार हो गया कि भाई इन धार्मिक पुस्तकों को ब्राह्मणों ने नहीं लिखा है। भारत आजाद होने पर ब्राह्मणों ने डॉ. आम्बेडकर को संविधान सभा में बड़ी हुशियारी के साथ जिता कर बुला लिया। उनके लिखे ड्राफ्ट को इनकार भी कर दिया लेकिन कहा गया कि आम्बेडकर संविधान सभा में ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन थे। दुखद यह है कि इनके चेयरमैन रहते हुए भी संविधान का ड्राफ्ट वीएन राव व एसएन मुखर्जी ने तैयार किया। ये सिर्फ चेयरमैन ही थे। संविधान की प्रस्तावना (प्रेअम्बल) जवाहरलाल नेहरू ने लिखा और कह दिया गया कि खूबसूरत प्रस्तावना आम्बेडकर ने लिखा है। संविधान पूर्ण होने पर घोषित कर दिया कि आम्बेडकर ने संविधान लिखा है जिससे सदियों-सदियों तक दलितों को बेवकूफ बनाए रखने के लिए कहा जाता रहे कि भाई इस देश का संविधान तो ब्राह्मणों ने बनाया नहीं, तुम्हारे आम्बेडकर साहब ने बनाया है तो मानोगे कैसे नहीं। संविधान के विरुद्ध दलित आवाज न उठाए इसलिए महान दलित विद्वान आम्बेडकर का नाम लगा दिया। ब्राह्मण को क्रेडिट नहीं चाहिए उसे सत्ता, संपत्ति और साधन चाहिए इसलिए स्वयं वेद लिखा, स्वयं पुराण लिखा, स्वयं रामायण और स्मृतियां लिखी, स्वयं भारतीय संविधान लिखा और नाम अन्य जातियों का रख दिया। उसका मजा और मलाई खुद काटते हैं। इन उदाहरणों से मैं आप को यह बताना चाहता हूँ कि ब्राह्मणों (आरएसएस) ने दलितों के मध्य से बुद्धिजीवियों को पकड़ा, उन्हें समझाया, उनके लालच को पूरा किया और कहा कि तुम अपनी जातियों के मध्य विदेशी-यूरेशियन ब्राह्मणों के प्रति नफरत का प्रचार करो, तुम्हारी जातियों के पढ़े-लिखे लोग ब्राह्मणों का विरोध शुरू कर देंगे तो ब्राह्मणवाद टूटेगा और तुम्हारी एकता बनेगी लेकिन दलितों को क्या पता कि ऐसा करने से सवर्ण जातियों के सामान्य लोग भी दलितों से आसानी से नफरत करने लगेंगे और दलितों के विरुद्ध संगठित हो जाएंगे। इस तरह ब्राह्मण-क्षत्रीय-वैश्य एकत्रित रहेंगे। यदि तीनों वर्ण एकत्रित रहे तो अन्य ओबीसी, अल्पसंख्यक और दलित सवर्णों का कुछ नहीं उखाड़ पाएंगे तथा सवर्ण हिंदुत्व के नाम पर, राम के नाम पर, सवर्णीय एकता के नाम पर सत्ता में भी बने रहेंगे। दलित साथियों को चाहिए कि सवर्ण जातियों के प्रगतिशील लोगों से संबंध विकसित करें, उनसे सहमतियाँ बनाएँ। इस तरह कट्टर जातिवादी लोगों को कमजोर किया जा सकेगा। जाति के विरुद्ध जाति का चिंतन जातिवाद है, वहीं जाति को खत्म किए जाने के नाम पर उत्पीड़ित-शोषित निम्न जातियों को जाति के रूप में संगठित करना जातिवाद है। हर जातियों के कट्टर लोगों को कमजोर करना जातिप्रथा के नीव को कमजोर करना है। सभी जातियों के प्रगतिशील लोग मिलकर ही जातिप्रथा को तोड़ सकते हैं। ब्राह्मणवाद के नाम पर सवर्णों के विरुद्ध दलित क्रियाशीलता सवर्णों को प्रतिक्रिया के लिए उकसा रहा है जिससे दलितों का वास्तविक आंदोलन छिन्न-भिन्न हो जाएगा तथा दलित पुनः मानसिक दबाव में आ जाएगा। 
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बेनीगंज, फैज़ाबाद, अयोध्या-224001
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