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Tuesday, December 29, 2020

सतीश छिम्पा की कहानी - 'बस यात्रा और दुनियादारी'

        

(सतीश छिम्पा - युवा कहानीकार ) 

बस यात्रा और दुनियादारी

        हमारे शहर में एक हरफ़नमौला किस्म के जीव रहते हैं। आप सोच रहे होंगे कि हरफ़नमौला है तो फिर 'जीव' शब्द क्योंकर लिया गया है। इसके पीछे भी एक कहानी है। महान घटनाओं सी घटी कोई कहानी नहीं बल्कि आम आदमी के जीवन की बहुत आम घटना। हुआ यह कि हमारे शहर के इस जीव को 'जीवन' शब्द से बहुत प्यार है। इतना प्यार है कि सुबह नींद से जब आंखे खुलती है तब से लगाकर नींद आने तक और यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कहूँ कि कभी कभार नींद में भी वे 'जीवन, जीवन, जीवन और जीवन की उज्जवलता, गरिमा, जीवन, जीवन, जीवन' जपते रहते हैं। खाने में जीवन, पीने में जीवन, व्हिस्की से रम तक और खुशी से ग़म तक बस जीवन ही जीवन है। कई बार तो जीवन खुद व्यथित हो जाता है। आक्रांत। भयभीत। इतना भय की थरथर कांपने लगता है और मिन्नतें करता है कि- "बस जनाब, बस, अब मुझे बख़्श दीजिए, जनाब मैं प्राणों की दुहाई देता हूँ..... मुझे बस एक ही बार बख़्श दीजिए, हाथ जोड़ता हूँ......" मगर वो कहाँ पिघलने वाले थे। नहीं ही पिघले। उनका मानना है कि पिघलना या कहूँ भावुक होना कमजोरी की निशानी है इसलिए वे कभी कमजोर नहीं होते। एकदम कड़क मिजाज़ और कड़प में रहते हैं।

        "जीवन के अपने मौलिक और सुंदर रंग है जो रंग बिरंगे हैं। तुम्हें जीवन के पास जाना चाहिए। उसे छूना और सहलाना चाहिए। प्यार करना, बात करना और चूमना चाहिए।" वे बता रहे थे और इधर मैं सोच रहा था कि आप इस जीवन को छोड़ेंगे तभी ना मैं इसको प्यार करूँगा ? छूने और सहलाने लायक छोड़ो तो सही-मगर मैं आगे सोच नहीं पाया और उनसे बात काटने की क्षमा मांगते हुए मैं जीवन के रंगों के बारे में अपने ताजा मिले अनुभव बताने लग गया।

जीवन:- दृश्य एक

          मैं बहन के ससुराल गोलूवाला से कैंचियां अड्डे की तरफ जा रहा था। लग रहा था जैसे बस को ठूंस-ठूंस कर भरा गया है। पाँव रखने तक की जगह नहीं है और मैं लटका हुआ सा खड़ा हूँ। बहन और बच्चों को सीट मिल गयी है। जैसे ही अमर सिंह वाला गांव का अड्डा आया, कुछ सवारियां उतर गई तब कहीं जाकर मुझे कुछ सुकून मिला। मैं जिस सीट के पास खड़ा था वहाँ दो ऐसी वाचाल औरतें बैठी हुई थी जिन्होंने उतनी कम देर की आपसी बातचीत में पूरे मुल्क का पोस्टमार्टम कर दिया था। राजनीति से लेकर प्रेम विवाह तक हर एक विषय पर धाड़.. धाड़..धाड़ बोल रही थी। घाघरा कुर्ता पहने इन किसान औरतों की बातें सुनकर लग रहा था कि सारी दुनिया खराब है, बुरी है। ऐबों से भरी हुई है। जालिम है जमाना मगर ये महिलाएं अच्छी है, बेहतरीन है, दयालुता की मूरत हैं, "इन्हें घड़ गयी वो बाड़ में ही बड़ गयी"....

"किरसन गो रिसतो हो ग्यो के ?" एक छापल कुरते वाली महिला ने दूसरी से पूछा

"ना ऐ बाई, अभी कहाँ हुआ है। लड़कियां भाग भले ही जाए परिजन शादी नहीं करेंगे। सरकारी नोकरी की डिमांड है।"

"साची है बेलां, किसानी में तो कोई अपनी लड़की देता है नहीं हैं। फरसाराम की पूनम जो चमारों के लड़के के साथ भागी थी- गोद मे बेटा है अब..." पहली महिला ने फिर कहा।

"सच्ची बात है, वैसे छोरियों की कमी भी बहुत हो गई है आज।" उसने इस अंदाज में कहा जैसे इस बात का सबसे ज्यादा दुःख उसे ही है।

"हाँ, सुभास वाला काम तो ठीक हो गया, भले टेम ब्याह हो ग्यो, कितने बच्चे है।"

"तीन लड़कियां हुई है। हमारी बहु तो लड़कियां ही पैदा करती जा रही है। बहुत से बाबाओं को आजमा लिया। ताबीज और डोरा डंडा भी करा लिया, पर एक छोरा तक नहीं पैदा किया...अबकी बार देखो क्या होता है। पेट से है " उसने सिसकारा मारा.....और मैं भाणजी हंसिका उर्फ़ मांडकी के सिर पर हाथ फेरते हुए सोच रहा हूँ कि इसे ये दुःख है कि इसके दूसरे छोरे को शादी के लिए छोरी नहीं मिल रही है जबकि उससे भी बड़ा दुःख है कि इसके बड़े लड़के की बीवी एक के बाद एक लड़कियां पैदा कर रही है।  मैं सोच रहा हूँ और कैंचियां अड्डा आ गया, अब लोक परिवहन की बस मिलेगी जो आगे हमे गांव पहुंचाएगी...

जीवन:- दृश्य दो

      लोक परिवहन बस की बीच वाली सीट पर बैठा हूँ। पिछली सीट पर दो आदमी बैठे हैं जिनसे सुबह के इस सुहाने मौसम में शराब की खुशबु आ रही है। मतलब कि सुबह सुबह ही हाला का प्याला पी आए। दोनों ही बिहारी मज़दूर है। मैले कुचैले कपड़ों में बैठे ये दोनों पूरी बस का मनोरंजन कर रहे हैं।

"मैं दारु पीने के बाद एक किलो मीट खा जाता हूँ। दस रोटी खाए बिना मेरा पेट नहीं भरता है।" एक जो पक्के रंग का था, बोल रहा था।

-"मैं तो भाई सुबह उठते ही एक जग लस्सी पीता हूँ और सोने से पहले दो लीटर दूध पी लेता हूँ, तभी तो इतनी ताकत है मुझमे" यह थोड़ा गौरा मगर मरियल किस्म का आदमी बोल रहा है। मुझे हंसी आ रही है मगर हंस नहीं पा रहा हूँ। मजबूरी है क्योंकि हंसना आ बेल मुझे मार या उछाळ भाटो भी साबित हो सकता है।

"बिमला के क्या हाल है" पहले ने पूछा

"कौन बिमला"

"अरे तेरी सेटिंग"

"बिमला नहीं है उसका नाम सन्तोष है, मस्त है, रात भर मेरे साथ ही थी, पूरी ऐश लूटी" मरियल ने कहा

 मैंने देखा वे दोनों बावजूद शराब पीने के कांप रहे थे।

"कौनसा ब्रांड लगाया है भाई?" मैंने मजे लेने की गरज से पूछ लिया

"हीर रांझा के अलावा कौनसा ब्रांड हो सकता है" काले आदमी ने हंसते हुए कहा तो कंडेक्टर बोला, "सारी बस गिंधा राखी है....लाडी दारु आथण बखत  पीणी चाइजै।"

"कुछ नहीं होता, माल खाता माल, दारू क्या बिगाड़ती है मेरा। झोटे जितनी ताकत है मुझमे" 

भगवानसर अड्डे पर उतरने के लिए वे खड़े हुए और "धड़ाम!!!!" ताकतवर आदमी का मुंह रेत में  टिक गया और सारी बस ठहाका लगा रही थी, बस में पंजाबी गीत बजने लगा, "मैं तिड़के घड़े दा पाणी, मैं कल तक नईं रैणा...."

जीवन:- दृश्य तीन

            वे दोनों तो अपनी राह चले गए। यहां कुछ देर बस रुकती है। ड्राइवर कंडक्टर चाय पानी पीने के लिए रुकते हैं। बस अड्डे पर चाय पीकर वे दोनों जने सिगरेट के सुट्टे लगा ही रहे थे कि बस ने हॉर्न दे दिया, मैं खिड़की से उन्हें देख रहा था। दोनों ने मुंह बिचकाया और बस में बिलकुल मेरे आगे वाली सीट पर आकर बैठ गए। उन्हें बस का हॉर्न देना शायद अच्छा नहीं लगा था, क्योंकि वे किसी चर्चा में व्यस्त थे और सोच रहे थे कि बस तो क्या पूरी दुनिया उन्ही के इशारों पर चले।

"इन दिनों क्या कर रहे हो?" पहले ने दूसरे से पूछा

"छुट्टियों में समाज सेवा करने से बड़ा क्या काम हो सकता है। बस आजकल इसी में लगा हूँ।"

"फिर भी"

"बहुत से विचार है मन में, सोच रहा हूँ आत्मकथा लिखूं, ताकि मेरे संघर्ष से लोग परिचित हों और युवा पीढ़ी उससे कुछ सीख ले सके" उस व्यक्ति में सर से टोपी उतार कर अपनी गंज को सहलाते हुए जवाब दिया।

"हाँ, ये जरूरी काम है, आपके संघर्ष का मैं गवाह हूँ, इतना आज के समय में कोई नहीं कर सकता है।" पहले ने कहा।

"ह्म्म्म" उसने लम्बी सांस छोड़ी और फिर बोला,"कितना ही कुछ कर लो मगर ये लोग मादर..... चू... या.. होते हैं, इन्हें संघर्षो की कदर नहीं होती..." 

" ये बात तो है, आपके उस प्लाट वाले रोळे का क्या हुआ? निपट गया क्या?" पहला आदमी जो किसी सरकारी स्कूल का प्रधानाध्यापक है ने पूछा।

"कहाँ निपटा है यार, उस भूखे नँगे दो कौड़ी के आदमी पर मैंने भरोसा करके दे दिया, अब उठने का नाम ही नहीं ले रहा है, जबकि उसने तो प्लाट में सिर्फ चारदिवारी करवाकर दो कोठे ही डलवाए थे, मेरे छः लाख लगे हुए हैं"

"आप भी ना मूर्खता कर रहे हैं, पुलिस को कहते, शाम तक खाली हो जाता" प्रधानाध्यापक ने कहा तो प्राध्यापक जी बोले," कह नहीं सकता जी, प्लाट के कागज़ पत्तर नहीं है, कब्जा करके अगले से समझौता करके पैसे दिए थे..... लड़की की शादी थी इसलिए उस भूख को बैठा दिया कि भाई कुछ खर्च कर लेगा वो, और गुजारा भी हो जाएगा, अब ऐसे हरामखोरों का कोई क्या कर ले..... सात प्लाट है मेरे पास, सभी मौके के, मगर अब किसी पर भरोसा नहीं करूंगा"

         अभी उनकी बात चल ही रही थी कि भगवानसर फांटे से मेरा परिचित दिनेश चढ़ गया।

"के बात रै, दिनुगै दिनुगै ई मदुवो बण ग्यो?" मैंने पूछा

"टेंशन है भाई जी, मरण स्यूं तो ठीक ई है' उसने कहा। बस चल पड़ी और मैं उससे बातें करने में लगा हूँ। दिनेश एम. फिल. नेट और जे.आर.एफ. है। बस पारिवारिक क्लेश ले बैठा उसे। बस चल रही थी और उन दोनों संघर्षशीलों की हथाई भी..... अड्डा आया और मैं उतर गया। लेकिन अब मैं चाहता हूँ कि आप लोग तय करें कि वे दोनों अध्यापक कितने संघर्षशील है। कितने समाजसेवी और त्यागी है। बहुत सी बातें हमे खुद समझनी होती है।

         मैंने अपनी बात खत्म की और प्रतिक्रिया के लिए उनके चेहरे पर निगाह डाली। वहां कुछ नहीं था। शून्यता- जैसे उन्होंने भोगा, देखा और खेला हो यह किरदार जीवन के रंगमंच पर।

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