विजय सिंह (कवि ) |
देश की सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं के साथ रंगकर्म से संबंधित लेख-समीक्षाएं प्रकाशित। 'सर्वनाम' पत्रिका (विष्णुचंन्द्र शर्मा जी ) द्वारा सन् 1989 में "विजय सिंह केन्द्रित अंक प्रकाशित"आकंठ, कृति ओर, जनपथ , युध्दरत आम आदमी साहित्यिक पत्रिकाओं में "विशेष कवि" स्तंभ से कविताओं का प्रकाशन। संपादित ग्रंथ : छत्तीसगढ़ की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह पूरी रंगत के साथ साहित्यिक पत्रिका "सूत्र" का संपादन। सन् 1985, से बस्तर में समर्पित रंगकर्म इप्टा और सूत्र के साथ अब तक लगभग 30- 40 नाटकों का निर्देशन और अभिनय भी। 15 वर्षो से बच्चों के साथ रंगकर्म। महत्वपूर्ण नाटकों का निर्देशन । प्रकाशित रचना :- "बंद टाकीज़" कविता संग्रह प्रकाशित।
1. बोड़ा
पहली बारिश में भीगकर
जंगल की मिट्टी हँसती है
और धूप की उजास में सरई जंगल
जी उठता है
सरई जंगल में यह
बोड़ा के आँख खोलने का समय है
और उधर दूर
बिहाने - बिहाने ( सुबह )
टुकनी मुंड में उठाये, हाथ में कुटकी लिए गाँव की औरतें बोड़ा
कोदने (खोदने ) के लिए निकल पड़ती हैं जंगल की ओर
वे पहुँचती हैं सरई के जंगल में
एक पंक्ति, एक लय, एक ताल में
वे जानती हैं
बोड़ा कोई नहीं बोता,
सरई जंगल बोता है प्रकृति की छांव में
वे जानती हैं छोटा - मटमैला
जंगल का बोलता गोला
धरती का सीना चीर
किस जगह फूटता है
शहर के बाज़ार को आँख तरेरने के लिए
गांव की बायले (औरत) मन
लोहुन - लोहुन ( झुक - झुक कर )
पाना ( सूखी पत्ती ) को हटा- हटाकर
भुई (भूमि) को कोदती ( खोदना )
बोड़ा को बीनती हँसती - बतियाती सरई जंगल में आगे बढ़ती हैं
बोड़ा खोदकर, बोड़ा बिनकर
बोड़ा टुकनी, सोली - पैली ( नाप का पुराना पैमाना ) मुंडी में उठाकर
बोड़ा बेचने दस - दस, बीस - बीस कोस दूर
जंगल से नंगे पांव चली आती हैं जगदलपुर के बाज़ार में
वे आती हैं
और शहर के बाज़ार में
हड़कम्प मच जाता है
बोड़ा - बोड़ा के शोर में, बोड़ा के स्वाद में
अच्छे - खासे शहर के बाजार को सांप सूंघ जाता है
वे नापती हैं सोली - पैली से बोड़ा
बोड़ा खरीदने वालों की भीड़ में
हर बार हारता है
शहर का चमचम बाज़ार !
-------------------------------------------------------------------------
2. मुहल्ले में कपास का फूल
ताज काटन सेंटर का साइन बोर्ड
दिसम्बर की ठिठुरती धूप में
कपास के फूल की तरह खिलता है
ताज काटन सेंटर मुहल्ले में कब से है
मुझे नहीं पता
रफीक मियां को भी नहीं पता
लेकिन वे जानते हैं
उनके अब्बू के अब्बा ने
उनके बचपन में खोला था
मुहल्ले में ताज काटन सेंटर
तब से मुहल्ला उनका है और
मुहल्ले के हैं ताज काटन सेंटर के रफीक मियां
ठंड की ठिठुरती धूप में रफीक मियां के हाथों
कपास के फूल हँसते हैं
अभी उनकी उँगलियों में थिरक रही है सुई
सुई में खिल रहा है धागा
धागे में खिलता है कपास का फूल
रफीक मियां के सिर के बाल यूंही सफेद नहीं हुए हैं
वे मुहल्ले में गद्दा सिलते - रूई
धूनते बढ़े हुए हैं
वे जानते हैं अपने शहर,
अपने मुहल्ले, अपने आस - पड़ोस को
जिनके प्रेम, दुआ सलाम से खिलता रहा है उनका जीवन
रफीक मियां जानते हैं
समय पहले जैसे नहीं रहा
उन्हें पता है आज के शहर के मिज़ाज का
डनलप के सपनों में सोये शहर में दिन में भी जगमगाती हैं रातें
और मुहल्ले में नहीं सुनाई पड़ती बच्चों की हँसी
इसलिए वे डरते हैं
डरता है उनके साथ ताज काटन सेंटर का साइन बोर्ड
उन्हें पता है इधर
छीना जा रहा है हाथों से हुनर
और माथे से पसीने की चमक
रफीक मियां अक्सर सोचते हैं
क्या कोई शहर, कोई मुहल्ला चमाचम रोशनी से
कपास के फूल की तरह खिल सकता है
रफीक मियां जानते हैं
मुट्ठी भर लोगों ने रचा है इस समय को
जिनके हाथ मेहनत से कभी नहीं उठते
बल्कि जिनके पांव माल - शापिग काम्प्लेक्स के लिफ्ट से उठते हैं
वे ही हर बार, हर जगह अपने हिसाब से
गढ़ते हैं एक बेसुध जीवन - एक बाज़ार
जिसमें मिट्टी है न पसीने की चमक
लेकिन उनका क्या
जो हिसाब - किताब में हमेशा कच्चे रहे
कच्चे रहे जिनके मकान
जिन्होंने ऋतुओं को जिया
ऋतुओं से लड़ा और
ऋतुओं से पाया जीवन
रफीक मियां आज भी उन लोगों पर होते हैं कुर्बान
जिनके पाँव में मिट्टी है
और हाथों में मेहनत
उनके लिए खुशी से हर बार
सिलते हैं गद्दा, धुनते हैं रूई
आप जानते हैं
रफीक ,मियां आज भी मुहल्ले में हैं
मुहल्ले में है ताज काटन सेंटर इसलिए
मुहल्ले में कपास का फूल है !
----------------------------------------------------
3. क्या यह कम बड़ी बात है
अच्छा हुआ मैं बड़ा कवि नहीं हुआ
और न ही, एकांत, अरुणकमल, देवी प्रसाद मिश्र
राजेश जोशी और आलोकधन्वा की तरह सातवें, आठवें
और नवें दशक के चर्चित कवियों की कविता में शामिल हुआ
न पहल ने मेरी कविता छापी
न साक्षात्कार ने और न ही
नामवर सिंह और अशोक वाजपेई ने
मेरी कविता की तारीफ की
फिर भी मैं कविता लिखता हूँ
मेरी कविता में जन -जीवन का मेरा संसार है
जिसमें खिला रहता हूँ पपीते के पीले फूल की तरह
अपनी खिड़की से बतियाता हूँ
ताज काटन सेंटर के रुई धुनते रफीक मियाँ से
देखता हूँ श्रीवास्तव भइया के घर में
खिल रहे गुड़हल के लाल फूल को
मुहल्ले के पड़ोसियों को जानता हूँ नाम से
जब भी वे मिलते हैं पूछता हूँ उनका हाल चाल
हरदम शामिल रहता हूँ मोहल्ले के बच्चों की हँसी में
पत्नी की हँसी में देखता हूँ अपने होने की चमक
यश और सूरज मेरी ऊँगली पकड़
जब कभी भी घूम आते हैं शहर
दौड़ती भागती और हाँफती
जीवनचर्या के बाद भी दोस्तों के लिए है मेरे पास समय
नरेश चंद्रकर, त्रिजुगी भाई, रजत कृष्ण
किरण अग्रवाल और नासिर भाई और बहुत सारे मित्रों को
लिखता हूँ मन से खत,
उनसे मिले चिट्ठियों को पाकर बच्चों की तरह खुश होता हूँ
समय कैसा भी हो
समय से लेता हूँ होड़
कविता लिखता हूँ
कविता में जीता हूँ
आपको मालूम
मेरे मोहल्ले के चौक में बैठा
जूते में कील ठोकता, हँसता- मुस्कुराता
बुड्डा मोची नानू मुझे जानता है
कि मैं एक कवि हूँ
क्या यह कम बड़ी बात है ?
-----------------------------------------------------------
4. हँसने के लिए वे समय नहीं देखते
वे हँसने के लिए छाँव
नहीं ढूँढंते
हँसते हैं, खिलखिलाकर हँसते हैं
धूप हो या बारिश
लू चले या ओले गिरे
हँसते हैं, खूब हँसते हैं
हँसते हैं ,पत्थर फोड़ते हैं
उघड़े बदन हँसते हैं
सड़क बनाते हैं खूब हँसते हैं
काम के खाली समय में
प्याज के साथ नमक
लाल मिर्ची की चटनी खाकर
एक तूंबा पानी पीते हैं
और लेकियों के साथ
हँसी - ठिठोली करते हैं और हँसते हैं
वे प्यार करना जानते हैं
वे हँसना जानते हैं
उनकी हँसी में
उनके माथे में खिलता है
पसीने का फूल
उनकी हँसी में गाँव की पगडंडियों में
खिल रहे बारहमासी जंगली फूल की चमक है
देखो,
उनकी हँसी में
खिल रहा है
यह बेसुरा समय...|
--------------------------------------------------------------
5. क्या पहाड़ मेरे गाँव का आदिवासी है ?
पहाड़ बोलता है
उसकी आवाज़ हम नहीं सुनते
पहाड़ हँसता है
उसकी हँसी में हम शामिल नहीं होते
पहाड़ हमसे बतियाना चाहता है
सुनाना चाहता है
अपने दु:ख - सुख के हजार - हजार किस्से
फिर भी हम उसके पास नहीं बैठते
जबकि करोड़ों - करोड़ों वर्षो से
हमारे जीवन में है पहाड़
लेकिन कब गये हम पहाड़ के पास
कब छुआ हमने पहाड़ को
कब पहाड़ से बतियाने की कोशिश की
हमने तो सिर्फ किताबों में पढ़ा है पहाड़ को
या फिर ड्राइंग रूम के चक दीवारों में टंगा देखा है
क्या पहाड़ मेरे गाँव का आदिवासी है?
---------------------------------------------------------------
6. जंगल सब का है
महुए के गंध से बौराया है जंगल
मदमस्त हाथी की तरह चिघांड़ रहा है
कि पक गया महुआ
कि पक गया तेन्दू
चीतल दूर - दूर से दौड़े चले आ रहे हैं
तो नकटी भालू भी गुर्रा रहा है कि
जंगल उनका है
जंगल उनका है
जंगल सबका है
महुआ बीनती माँएँ जानती है
इसलिए अलसुबह निकल पड़ती है
बच्चों के साथ पानी - पेजऔर टुकनी उठाये
जंगल की ओर
मई के महीने में महुआ टपकता है
टप - टप धरती में
तब जंगल का जंगल
जाग जाता है
जाग जाती है
तेन्दू पेड़ में सोई पंडकी चिड़िया भी
पगडंडी उठ बैठते हैं
उठ जाती है
जंगली घास भी |
---------------------------------------------------------------------------------------------------------
सम्पर्क: विजय सिंह
बंद टॉकीज के सामने
जगदलपुर, जिला - बस्तर (छ.ग.)
मो. - 9424285311
सभी संवेदनशील कविताएं है। इंद्रियबोध से विलग कविता की कोई पंक्ति नही है। पहली बारिश में जंगल की मिट्टी हंसती है वाली कविता हो या कॉटन सेंटर में काम करने वाले रफीक भाई के से जुड़ी कविता हो या क्या फर्क पड़ता है वाली कविता हो - विजय के हर कविता में जीवन लहराता है। विजय कविताओं में हमेशा विजय प्रमाणित होता है। हर पंक्ति में विजय किसी संदर्भ और नई संवेदना को उभरता है। अभिनंदन विजय भाई को ।बेहतरीन कवि और कवियाएँ प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद ।
ReplyDelete